कविता मेरी जाग रही
काश कि रोटी होती कविता
ढेरों रोज पकाता
भूख से व्याकुल लोगों के संग
बैठ पेट भर खाता
कम्बल बनती कविता तो
न ठण्ड से कोई मरता
शब्दों के धागों को बुनकर
मुफ्त में बांटा करता
शब्द जो होते ईंटा-गारा
मिस्त्री मैं बन जाता
तोड़ के सारी झोपड़ियों को
सुन्दर महल बनाता
कविता मेरी उदास हो गयी
ताने सहते-सहते
प्रायः रो देती है ह्रदय में
दुखड़े कहते-कहते
बौराई सी फिरे अकेली
मीत मिले न कोई
पीड़ामय उपवन में सुन्दर
गीत खिले न कोई
मगर प्रेमरसयुक्त सदा
कविता बनकर अनुराग बही
सो जाओ निश्चिंत मनुज तुम
कविता मेरी जाग रही