कविता —- बहते जा
कहीं न फूल
कहीं न काँटें
एक तरल पवन सा बहते जा
आद्यन्त निरन्तर पथराही
गिरकर भी स्वयं सँभलते जा
मधुमय मधु
विष रस भी होगा
असीमाकृत प्रकृति है
स्वप्न अज्ञात
बन क्षीर अमर रस
जग तल पर
निज वॄत्त से स्नेह बरसते जा
लक्ष्यातुर कर
निज चित्त उर्मियाँ
निज लक्ष्य बिन्दु पर बढ़ते जा
स्मित सौरभ
भर नभ जग में
स्वछन्द सुमन सा खिलते जा
उस अलक्ष्य
अज्ञात का यह
राग भरा पर नि:स्वर है
चूम व्यथा बन
मृदुल शान्त पर
चाह संग आह भी सुनते जा
निज लक्ष्य यात्रा पूरित कर
अमृत बन मोम पिघलते जा
तुम भी जागो
न करो आत्म छल
दुनिया से यह कहते जा