कविता :– गुरु की है निर्मल काया
कविता :–गुरु की है निर्मल काया ।
गुरु की है निर्मल काया ।
खेतों की उपजाऊ मिट्टी
खुरद खुरद कर लाता ।
नवांकुर पौधों को उसमें
दोनों हाथ लगाता ।
पौधे की कोमल टहनी को
दर्द हुआ था भारी ।
पर विशाल वृक्षों की ऐसे
ही होती तैयारी ।
नन्हा सा इक पौधा पाकर
माली था हर्षाया ।
गुरु की है निर्मल काया ।
पौधे की पंखुड़ियों को
फिर माली उकसाता ।
संयम साहस सब्र सलीका
रह रह कर सिखलाता ।
संघर्षों के पतझड़ बीते
आदर्शों के सावन ।
और बसंत उपहार लिए तब
आई थी मनभावन ।
नया सबेरा नई बहारें
देख कुंवर मुस्काया ,
गुरु की है निर्मल काया ।
निर्मल निश्छल निष्कपट
निस्वार्थ है ममता ।
मां पर सीधा निर्भर होती
हर बच्चे की क्षमता ।
इस दुनियां के तौर तरीके
दाव पेंच सिखलाती ।
तब जाकर उन बच्चों में
लड़ने की हिम्मत आती
हर अबोध बालक को मां ने
पहला पाठ पढ़ाया ।
गुरु की है निर्मल काया ।
✍? अनुज तिवारी ” इंदवार “