कविता के साथ जिया
कल मैंने कविता नहीं लिखी, कल मैं कविता के साथ जिया।
अमरूद चन्द तोड़े, खाए, छप्पर से तोड़ी कई घिया ।।
घूमता रहा खेतों – खेतों, अगणित पौधों से भेंट हुई।
कल बहुत दिनों के बाद पुनः, छू-छू कर देखा छुईमुई।।
जल कभी दिया था जिस तरु को, उसके नीचे विश्राम किया।
कल मैंने कविता नहीं लिखी, कल मैं कविता के साथ जिया।।
बाजार गया बच्चों के सॅंग, बच्चों ने वहाॅं चाट खायी।
बच्चों के सॅंग जीकर मैंने, बच्चों से अधिक खुशी पायी।।
कम्पट- पट्टी- गुल्लइया खा, हॅंस-हॅंसकर हर्षित हुआ हिया।
कल मैंने कविता नहीं लिखी, कल मैं कविता के साथ जिया।।
फिर हार- जीत का भेद भूल, खेलता रहा लूडो- कैरम।
बच्चे जीते, चहके- झूमे, मैंने ढोया हारों का ग़म।।
बच्चों से सीखीं कुछ बातें, कुछ सीखें मैंने उन्हें दिया।
कल मैंने कविता नहीं लिखी, कल मैं कविता के साथ जिया।।
मैं मिलने गया बुजुर्गों से, उनका आशीर्वाद पाया।
जिनकी हालत देखी शिकस्त, उन पर भीतरी तरस आया।।
अपने तन का भविष्य मैंने, मन ही मन में अनुमान लिया।
कल मैंने कविता नहीं लिखी, कल मैं कविता के साथ जिया।।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी