कविता के मीत प्रवासी- से
कविता के मीत प्रवासी- से
———————————
(प्रो०लक्ष्मीकांत शर्मा)
कुछ गीत तुम्हारे कण्ठ से फूटे
कुछ हमने उतारे कागज़ पर
कुछ वीणा की लहरी बन उभरे
कुछ थिरक उठे पखावज पर
पलकों को खोला ,मूंद लिया
वह निज संकेतों की भाषा थी
अभिप्राय जुड़े मन से मन के
मेरी कविताओं की आशा थी
अब सुमन विहँसते नहीं
शब्द मौन, मन की उदासी से
तुम यूँ गए , तुम चले गए
कविता के मीत प्रवासी से …..