कविता के आंसू
आज कविता रोती है
सिर पटक पटक कर!
कितनों के अरमान ढह गए!
कितनों के मंजिल जा छूटे!
कितनों के शीशों के जैसे
चनक चनक के दिल जा टूटे!
दानवता की होड़,
मनुजता बेचारी हो गई
जितने बढ़ते खून,
उतनी ही बेकारी हो गई!
आज हृदय स्पंदन रोता है
मन की तारें लौट चुकी हैं जाकर तट पर!
आज कविता रोती है सिर पटक पटक कर!
हृदय का उल्लास मर गया!
आदमी जिंदा लाश बन गया!
कदम-कदम पर खतरा है,
पहरेदारों! विश्वास मर गया!
टकराती है लाशों से लाशें धरती पर,
और गगन में रक्त के छींटे पड़ते हैं!
कुछ भरते हैं अपने गड्ढे अपने उदर,
और झुग्गियों में बिलखते शव सड़ते हैं!
आशाओं के तार टूटगए रातोंकी बारात देखकर!
आज कविता रोती है सिर पटक पटक कर!