कविता : कुदरत
कविता : कुदरत
कुदरत के खेल निराले हैं, कहीं अँधेरे कहीं उजाले हैं।
ये सोच कर्म करते जाओ, अपने दिवस बदलने वाले हैं।।
समय भाग्य कुदरत के वश में, अपने वश में कर्मों के प्याले।
पानी से भर चाहे जल से, नहीं लगे हैं इनपर तो ताले।।
समझ स्वयं को पहले मानव, यही कठिन है नहीं असंभव पर।
क्या करने आया वसुधा पर? इसी प्रश्न का दे ख़ुद को उत्तर।।
उत्तर आत्मा देगी तुझको, समझ मनन चिंतन से आएगा।
मन दीवार बनेगा पक्की, इसे तोड़कर तू हल पाएगा।।
जाल बिछाया माया का है, कुदरत ने सिर्फ़ आज़माने को।
मछली बन हम फँस जाते हैं, दुखड़े अपने-अपने गाने को।।
जो विरला बच जाता ‘प्रीतम’, महापुरुष जग में कहलाता है।
नर का भेष बनाकर भू-पर, मार्ग दिखाने प्रभु ख़ुद आता है।।
#आर. एस. ‘प्रीतम’
#स्वरचित रचना