कविता की क्यारी में
कविता की क्यारी में
कविता की क्यारी में भटकता
क्योंकि मैं अपरिचित हूँ
जाकर,तथापि किसी
सार्थक,निरर्थक डाली से अंटकता
कभी कोई कल्पित कुसुम कली पाता हूँ
शब्दों का पुष्पमाल उसी से बनाता हूँ ।
कभी कभी मिलता है कोई कल्प-कमल
शब्द-कांकड़,जोड़-जोड़ कर
खड़ा करता एक भंगुर महल
जो इंगल-पिंगल
के उच्छृंखल
झोंके के साथ ही बह जाए
है अनिश्चित भी ,कि
याद के आह्लाद हेतु
क्षत-विक्षत,अवशिष्ट सेतु
नियत स्थान पे रह जाए
कभी-कभी तो मैं
कविता कि कजरारी दरिया में
सूक्ष्म जलचर सा
डुबकियाँ भी लगाता हूँ
पर कहीं धोखे से भी
कोई ठौर न पाता हूँ
इतराते उतराते
फिर शब्द के सलोने सागर में
लक्ष लालसा लिए
शब्द-मोती को सँजोने गागर में
गोते भी कभी कभी लगाता हूँ
भाग्यवश मिल जाए कहीं
कोई जड़ित भाव मोती
जिससे कविता दूर तक पसर सके
और कथ्य का भी हो असर सके
निष्फल हो ,निराश होता हूँ
फिर भी ,विश्वास न खोता हूँ
भूख से आकुल ऐसी दशा होती है
सर पे सवार सिर्फ एक नशा होती है
कि उगा डालूँ कोई नई कविता
जसे नील नभ में प्रस्फुटित होते
चाँद ,तारे और सविता ।
कभी कभी शब्द की बगिया में
एक परिंदे सी उड़ान भरता हूँ
निपट ,नादान ,अंजान
तब मन-ही-मन डरता हूँ
हर बार अगली उड़ान से
कान पकड़ता हूँ
और यदि पकड़ पाता
अपेक्षाकृत,किसी सख्त डाली को
तो फिर शब्द नहीं मिलते
कि व्यक्त करूँ खुशहाली को।
मगर कविता तब भी बनती
शृंगारविहीन,अस्थि-पंजर,कंकाल
मन मसोसता,कोसता
हाय रे अभागा,शब्द से कंगाल।
कविता-कला के काल में
शब्द का ग्रीष्म आने पर
भावों के उष्णता में
यथासाध्य सहिष्णुता से
हृदय को तपाता हूँ
दिमाग को खपाता हूँ
कुन्दन-सा दमकाने को
शेषफल,क्या,सिवा पछताने के
शब्द के बरसात में
भींगता सर से पाँव तक।
तलाशता,आंखे मूँद-मूँद
स्वाति का एक बूँद
सीपी में समाने को
माणिक बनाने को
एकाध परनाला ही खींच जाए,बरसाती
सो,बामशक्कत गुजरता
नदी से तालाब तक ।
बिजली की कड़क,बादलो की चमक
तिसपर सनकी धूप की तीखी सनक
थकान का भान होते ही
दौड़ता हूँ धूप से छांव तक ।
थोड़ा सा सुस्ताने को
शब्दान्न की लालसा लिए
भिक्षुक सा विचरता
शहर से गाँव तक ।
कही,कुछ पाने को
निज क्षुधा मिटाने को
कहीं सार न पाया
कविता भी न पनपाया
कामनाएँ रह गई कोरी
निरर्थक प्रयत्न निगोड़ी
ग्रीष्म अरु बरसात से परास्त
शब्द के शीत-शिशिर में
मैं भी,शशक-सा छोड़ देता कुलाचें
शब्द का बसंत आने पर
मन मयूर खूब नाचे
अतिशय इतराता हूँ
भौरे की तरह ,भाव से खिले फूलों पर
खूब इठलाता हूँ
पर,पराग पहले ही झड़े मिलते है
मजा चखाने को केवल
काँटे ही खड़े मिलते है
पीछे मुड़ जाता हूँ
उँगलियों को आहत किए
दिल थाम कर बैठा
अनगिनत चाहत लिए
चक्र-सा परिभ्रमित
यत्र-तत्र-सर्वत्र
एक कविता की तैयारी में ।
अब भी अपेक्षित क्या बतलाना
किस कदर भटकता मैं
कविता की क्यारी में ।
-©नवल किशोर सिंह