कविता किया करता हूँ
ऊषाकालीन रश्मियों में
सर्दी की रंगीनियों में
छत पे बैठकर जब भी
मैं गर्मी लिया करता हूँ
बस तभी मैं –
कविता किया करता हूँ ।
नारी का उत्पीड़ित मन
बिलखते बच्चों के नंगे तन
और बेबसी पर अट्टहास लगाते
असुरों को जब भी
मैं देख लिया करता हूँ
बस तभी मैं
कविता किया करता हूँ ।
दिल में दर्द का तूफान हो
जज़्बात रोकना ना आसान हो
हर चन्द कोशिशों के बावजू़द जब भी
मैं रो लिया करता हूँ
बस तभी मैं
कविता किया करता हूँ ।
बसंत की बहारों से
वर्षा की फुहारों से
उफनते जज़्बातों की तपिश पे जब भी
मैं ठंडक पा लिया करता हूँ
बस तभी मैं
कविता किया करता हूँ ।
हालात कुछ आसान हो
मौसम भी जवान हो
मद मस्त झौंकों से जब भी
मैं तेरा आभास पा लिया करता हूँ
बस तभी मैं
कविता किया करता हूँ ।।
(ज्योतिर्विद् ईश्वर जैन “कौस्तुभ”)