कविता …..आपस में है भाई.. भाई
..…..आपस में है भाई.. भाई
हिन्दू.. मुस्लिम …सिख..इसाई,कभी बनें ना भाई.. भाई
ना मस्जिद में बजी आरती, ना मंदिर में गये इसाई
ना गिरजा में सिख गये है, ना गुरूद्वारे मुस्लिम भाई
फिर भी झूठा नारा गूंजे….हिन्दू. मुस्लिम. सिख.इसाई
आपस में है भाई. भाई ……………
कभी खींचे तलवार जात पर,कभी धर्म पर बजे लडाई
मैने अब तक ये नही देखा, प्यार से देता कोई बिदाई
किसी झूठें ने यूं ही बोला ,हिन्दू. मुस्लिम. सिख.इसाई
आपस में है भाई .भाई …………….
काश अम्ल में ये आ जाता, इन्सा बस इन्सा रह जाता
होती ना पहचान निराली,खुदा देख ये खुश हो जाता
ना जानें किस पाखण्डी ने, इतनी सारी जात बनाई
फिर भी झूठा नारा गूंजे, हिन्दू. मुस्लिम. सिख. इसाई
आपस में है भाई.. भाई …………….
कभी दाढी पर दंगे भडके, कभी तिलक पर छिडे लडाई
क्यूं इन्सा .इन्सा का दुश्मन,बात समझ अब तक ना आई
फिर लिख दूं मै कैसे “सागर”, हिन्दू. मुस्लिम. सिख. इसाई
आपस में है भाई.. भाई ……………….!!
मूल रचनाकार ……
डाँ. नरेश कुमार ” सागर”