कविता। वही गुरु है अध्यापक है न कि कोई दग़ा पड़ाका ।
जीवन मे शिक्षक की अनिवार्यता , एवं शिक्षक के कार्य व्यवहार पर प्रश्न उठाने वालों के प्रति
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, कविता । ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
आई दिवाली दगा पड़ाका
उठती डोली दगा पड़ाका
रण की भेरी दगा पड़ाका
खोखला होकर दगा पड़ाका
फिर तो यही पड़ाका ।
कैसे दगा पड़ाका ?
आसपास तक दगा पड़ाका
फुस हो जाता दगा पड़ाका
रंग –बिरंगा दगा पड़ाका
जलते जलते दगा पड़ाका
शायद यही पड़ाका !
हा हा यही पड़ाका ।
नही नही यह दिग्दर्शक है
कभी नही यह निरर्थक है
सफलता का प्रदर्शक है
भावों का यह आकर्षक है
सबने जिसको ताका ।
फिर क्यों दगा पड़ाका ?
करना क्या है इसका परिचय
कर्तव्यों का करता संचय
सदा इसी कि होती है जय
फिर क्यों बदल गया है आशय
कह तो दिये भड़ाका ।
कैसे दगा पड़ाका ?
छोटे छोटे कणों से निर्मित
भोली भाली जिसकी परिमित
मानवता से जो है सीमित
स्नेहिल धागों से बाधित
होता जिसका खाका ।
कैसे दगा पड़ाका ?
यह तो है गर्मी मे छाह
यही सफलता की इक राह
यह समता की एक निगाह
आदर ही बस इसकी चाह
समाजिकता का आँका ।
कैसे दगा पड़ाका ?
अन्धकार का करता नाश
यह जलकर देता प्रकाश
भरता जाता है उल्लास
विफल नही इसका प्रयास
सूचक विजय पताका ।
सच मे यही पड़ाका !!
जिसनें त्यागा जीवन अपना
उसका क्या कोई है सपना
जीवन भर जिसको है तपना
फिर क्या उसके दिल का नपना
क्या डाल रहा है डाका ।
तब क्यों दगा पड़ाका ?
जीवन भर मे जो व्यापक है
उसको निज जीवन का हक है
वही गुरू है अध्यापक है
फिर कैसे इतना घातक है
बाल न करता बांका ।
यह तो नही पड़ाका !
जिसका है अपघर्षण होत
जो ऊर्जा, ऊर्जा का स्रोत
आवेशों से ओतप्रोत
यह न कोई है खद्योत
सीमित नही इलाका ।
तब क्यों दगा पड़ाका ?
जीवन भर जीवन के बाद
नही बन सकेगा अपवाद
दोनो मे कैसा विवाद
व्यर्थ करो न अब संवाद
लेकर कोई ठहाका ।
कैसे दगा पड़ाका ?
राम केश मिश्र