कविताएं नही लिखूं ।
कभी कभी सोचता हूं
कविताएं नही लिखू
लेकिन फिर कलम उसी ओर मुड़ जाती है
सोचता हूं अब लिखू नही
सिर्फ़ पढू उनकी कविताएं
जिसने अपने प्रेम को कुर्बान करके
शब्दों के साथ जीना सीखा है
और ये भी बड़ा इत्तेफाक ही है
की मैंने शब्दों के साथ साथ
तुम्हें भी पढ़ रहा हु ।
भला यह कैसे मुमकिन हो सकता
मैं चाहता हु मैं उनकी कविता पढ़ सकू
जो कभी आशिक कहलाते थे
जो लड़के रोने के बाद आंसू की जगह
शब्द से लिखते है।
प्रेम में विफ़ल लड़के अपने पीड़ा को
कई रूप में देखते है
और वो एक आशिक़ से सामान्य बन जाते है
मैं चाहता हु उनकी कविता पढू ।
जो लड़की किसी पीड़ा को लिख
लिख कर दुनिया को कह रही है
की वाकई दुनिया बड़ी ज़ालिम है ।
– हसीब अनवर