कविताएँ
फैंके हुए सिक्के ….
फैंके हुए सिक्के हम उठाते नहीं कभी |
अपनी खुद्दरियों को गिरते नहीं कभी ||
खुद के बड़ा होने का जिनको गरूर हो |
महफिलों में उनकी हम जाते नहीं कभी ||
उम्र के तजुर्बों से इक बात सीखी है |
दिल के छालों को हम दिखाते नहीं कभी ||
कुछ दोस्त हैं हमारे जिनसे हार जाते हैं |
हुनर जीतने का उनको दिखाते नहीं कभी ||
सुहाता नहीं है हमको किसी से उलझना |
बातों के जाल हम बनाते नहीं कभी ||
बेशक आसमां में बेहिसाब खतरे हैं |
उड़ते परिंदों को हम डराते नहीं कभी ||
इक रूहानी ताकत हमसे लिखवाती है |
यह राज दोस्तों हम बताते नहीं कभी ||
करने वाला और है यही सोच कर दर्द |
एहसान दोस्तों को गिनाते नहीं कभी ||
अशोक दर्द
बर्फ और पहाड़ की कविता ……
ऊँचे देवदारों की फुनगियों पर फिर
सफेद फाहे चमकने लगे हैं
सफेद चादर में लिपटे पहाड़ फिर दमकने लगे हैं |
पगडंडियों पर पैरों की फच फच से
उभर आये हैं गहरे काले निशान
दौड़ती बतियाती बस्तियां हो गई हैं फिर से खामोश गुमसुम वीरान |
टपकती झोंपड़ियों और फटे कम्बलों
के बीच से निकलने लगी हैं ठंडी गहरी सिसकारियां
भीगे मौजे और फटे जूते करने लगे हैं जैसे युद्ध की तैयारियां |
फिर भी सब कुछ ठंडा ठंडा नहीं है यहाँ
कुछ हाथों में दस्ताने भी हैं और बदन पे गर्म कोट भी
फैंक रहे हैं वे एक दूसरे पर बर्फ के गोले
खिंचवा रहे हैं एक दूसरे से चिपक कर फोटो |
वाच रहे हैं बर्फ का महात्म्य
सिमट कर एक दूसरे की बाहों में होटलों के गर्म कमरों में
काफी की चुस्कियां लेते हुए |
गाँव में तो सिमट गया है पहाड़ चूल्हों के भीतर
ठेकेदार का काम बंद है बर्फ के पिघलने तक
गरीबु कभी ऊपर बादलों की तरफ देखता है तो कभी अपने कनस्तर में आटा
उसे तो बर्फ में कोई सौन्दर्य नजर नहीं आता |
इसमें सौन्दर्य उन्हें दीखता है जिनके कनस्तर आटे से भरे पड़े हैं
पैरों में गर्म मौजे हैं बदन पे मंहगे कोट और गले में विदेशी कैमरे
वे बर्फ में फोटो भी खींचते हैं और इसके सौन्दर्य पर कविताएँ भी लिखते हैं |
श्वेत धवल पहाड़ सुंदर तो दिखते हैं परन्तु दूर से
पास आओ तो इनकी दुर्गमता व कठिनता बड़ी विशाल है
यहाँ पीठ पर पहाड़ को धोना पड़ता है
बर्फ के गिरने से बोझ और भी बढ़ जाता है
पहाड़ पर जीने के लिए पहाड़ हो जाना पड़ता है |
अशोक दर्द