कविताई
कविताई__
है भाव खतम सब भाई|
कैसे होगी कविताई|
अपनी अपनी पडी़ है सबको, अपनी रूचि है भाई|
है भाव…..
है स्वार्थ सिद्ध अब जनता|
ना किसी का किसी से बनता|
है दूर हो गई समता|
चहुँ ओर है व्याप्त विषमता|
अंतर्मन हुआ विषपायी|
कैसे होगी कविताई|
जो लाई तुम्हें धरा पर, |
जीवन और मृत्यु से लडकर|
तेरी उन्नति के खातिर,
हर क्षण रहती थी तत्पर|
लालन का सुख सर्वोपरि,
यह कहती थी वह माई|
है भाव खतम….
माँ की ममता है हतप्रभ|
रिश्ते सब हुए हैं निष्प्रभ|
घायल कातर मानवता,
कटुता ही कटुता सुलभ|
अब तो भाई चतुराई
कहाँ याद रही अब माई|
है भाव….
अपनी तो बीत गई है,
है बड़ीभयानक चिंता|
कैसे समाज को किया
सुसज्जित जहाँ कुत्सित
मानवता|
रिश्तों का शरबत छोड़ दिये|
नफरत का चादर ओढ़ लिये|
आने वाली पीढ़ी को हम
कडवाहट का हैं कोढ़ दिये|
अब ताप है सहते ईष्या के मन बुधि एकदम भरमाई|
है भाव खतम…
इस तरह नहीं सूखा करते
अपनों से नहीं रूठा करते|
यह जगत भावनाओं का है|
पत्थर से नहीं निष्ठा करते|
अमिय तुल्य भावनाओं का महसूस करो अरूणाई|
सब भाव खतम…
डा. पूनम श्रीवास्तव (वाणी) ?️???