कवयित्री बनी हैं स्त्रियाँ
कवयित्री बनी हैं स्त्रियाँ
क्योंकि उनको कभी सुना नहीं गया
उनकी आवाज़ सदा दबा दी गयी
तभी मन की वेदना को
स्त्री ने पन्नों पर उकेरा…
वो स्त्री ही है
जो हर बार लिखी गयी
पर समझी नहीं गयी…
वो स्त्री ही है
जो तड़पाई गई
पर सहलाई नहीं गयी…
वो स्त्री ही है
जो जीवन में एक बार नहीं
कई बार मरी
बस दफनाई नहीं गयी…
वो स्त्री ही है
जिसकी वाणी स्वेद में बही,
किन्तु अब उसका मौन मुखरित हो रहा है…
वो स्त्री ही है
जो आधी आबादी कहलाती है
पर उस अर्द्ध को पूर्ण भी वही करती है…
वो स्त्री ही है
जिसकी कविताएं
उसकी भीतरी दुनिया की गुत्थियाँ हैं…
वो स्त्री ही है
जो सिर्फ देह रह गयी है,
देह की आत्मा अनदेखी की गई है…
वो स्त्री ही है
जिसकी घुटी चीखें
दीवारों से टकराकर मौन हो गईं…
वो स्त्री ही है
जो बहुत बोलती है
किन्तु मन की कभी कह नहीं पाई…
वो स्त्री ही है
जो जितनी घिसती गई
उतनी ही निखरती गई
अलग सांचे में ढलती गई…
वो स्त्री ही है
जो सालों उबलती रही अंदर,
कविता उसकी सदा है
जो उसके भीतर को बाहर ला रही है…
वो स्त्री ही है
जो स्थापित हुई
प्रतिस्थापित हुई
और विस्थापित भी हुई…
उसकी डोली पिता के घर से
अर्थी पति के घर से निकलती
पर इस बीच
कितनी बार जी
कितनी बार मरी
इसका लेखा-जोखा मिलेगा
हर उस स्त्री की कलम में
जो कवयित्री बनी,
हाँ, कवयित्री बनी।।
रचयिता–
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’