कल रात जंगल सोया नही,,,,
दोस्तों,
एक स्वतंत्र ग़ज़ल सादर प्रेषित है।
ग़ज़ल
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कल रात जंगल, सोया नही,
ऐसा भी नही, वह रोया नही।
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सदाऐं सुन न सका कोई भी,
लगा अपना उसने खोया नही।
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बरखा जम के बर्सी जमीं पर,
पर आस का बीज बोया नही।
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खिलती कलियां कैसे साहब,
लगा शज़र ने बोझ ढ़ोया नही।
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कत्ल कर दिया अरमानों का,
देखता रहा मगर वो रोया नही।
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जिस्म से अलग कर के जान,
लहू के आंसू ‘जैदि’ धोया नही।
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शायर::- “जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”
बीकानेर।