कल्पना
अकल्पनीय स्वर्णिम कल्पना मेरे इंद्रधनुषी रंगें ख्वाब हैं।
दिव्य प्रकाश पुंज अद्भुत फैला
बहुरंगी और नायाब है।
फिज़ाएं भी रंगी हुई,
वातावरण रंगा हुआ।
आकाश गंगा की धारा ने, स्वच्छंद हो मुझको छुआ।
एक कल्प वृक्ष की डाल पर, देखो मैं झूला झूलती।
सुखद स्वर्गिक परिवेश में, हूं पीड़ा सारी भूलती।
मैं ऊंची-ऊंची पींघ लिए,हर ग़म की कन्नी काटती।
खुशरंग रंगों की उज्ज्वल आभा,
मुझे आज कुदरत बांटती।
अहा! क्या ये सचमुच मैं ही हूं? सदा खुश मैं काश ऐसे ही रहूं।
इन लाल,हरे, नीले-पीले
प्यारे सुमनों सी मैं भी खिलूं।
इन अनंत बसंती खुशियों से,
चलो आज मैं भी गले मिलूं।
मैं भर रही निस उन्मुक्त उड़ान,
हंसी हर्षमस्ती मेरी नव पहचान।
आलोकित सुखमय प्रकाश में,
नीलम छवि गोधुल हुई
मैं उल्लास हर्ष में डूबकर,
हां दुखदर्द सारे भूल गई।
नीलम शर्मा