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25 Oct 2018 · 1 min read

# कल्पनाओं में उलझता प्रेम #

सुनो !
तुम जो मेरी
संवेदनाओं को कुचलती
कर्कश ध्वनि उत्पादित करती हो न
तो ये रिश्तों में दरार
पैदा करती है ।

सामञ्जस्य के यज्ञ में
परस्पर स्नेह की
आहुति दे अप्रत्याशित
जब उग्र रुप धर लेती हो तो
कभी-कभी विचलित सा
हो जाता हूँ मैं ।

किंकर्तव्यविमूढ़ अपराधबोध
करने लगता हूँ,
वहीं तुम्हारे स्नेह-वात्सल्य से
आश्वस्त भी हो जाता हूँ
पर विडम्बना
तुम्हारे दोहरे चरित्र में
अक्सर पिस जाता हूँ मैं ।

क्यों नहीं तुम
काल्पनिक उड़ान से
हकीकत की जमीन पर उतरती,
क्यों नहीं ज्वाला को कोमल उष्मा में
क्रोध को प्रेम में परिवर्तित करती !!
फिर देखो
कैसे ये बिखराव
सिमटती है और
छद्मवेशी झुरमुटों से बाहर
ज़िन्दगी कैसे
आनन्द में रमण करती है ।
.
.

Language: Hindi
1 Like · 1 Comment · 423 Views

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