कलिंग का पाप
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पाप था कलिंग का होना, स्वाभिमानी!
कि अशोक की महत्वाकांक्षाओं का
होता रहना अभिमानी?
सम्मान, कहते हैं, छीने नहीं जा सकते।
किन्तु, यह तो सभ्यता के दौर का है एक मुहावरा।
अहंकार के अंधेपन की कोई सभ्यता नहीं होती।
सभ्य दिवास्वप्न में खोये मत रहो स्वयंवरा।
वर ‘अशोक’ सा हो तो तेरा स्वाभिमान कैसा!
समर, तुझे प्राप्त करना हो तो, तेरा सम्मान कैसा!
कलिंग को, पराजित होना पराजय नहीं
उसका आत्माभिमान था।
अशोक का जयी होना उसका जय नहीं
उसके अन्तर्मन में उसका अपमान था।
कलिंग का उद्यमी होना पाप था क्या?
कलिंग का समृद्ध होना गुनाह था क्या?
विस्तारवाद से ग्रस्त था अशोक।
ऐश्वर्य में दरिद्रता से त्रस्त था अशोक।
बलात्कार का फलसफा दूषित है दुष्टता से।
समर्पित न होने की धृष्टता से।
युद्ध और बलात्कार
अशोक का सम्राट होने का मापदंड है।
ऐसे लोग अन्तर्मन में हमेशा खण्ड-खण्ड है।
वीरांगनाओं ने उठाकर तलवार जीत लिया रण।
नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था अशोक का हर प्रण।
अशोक का कलिंग-प्रायश्चित
झोंकता है आँखों में धूल।
बुद्ध हो जाता यदि अशोक
‘भोग’ की शंकाएँ होती निर्मूल।
कलिंग के युद्ध में कलिंग का क्रोध
आत्मघाती नहीं था।
अशोक के अविवेकी-अन्याय का विरोध था।
और कायम रखने की जिद तक
मृत्यु की भांति प्रतापी था।
दुनियाँ में कलिंग अब भी है और अशोक भी।
बुद्ध को करना पड़ता है बस शोक ही।
—————–11sept21——————-