कलरब्लाइंड साजन
“देखना ये सही शेड बना है? आना ज़रा…”
“मैं नहीं आ रही! जब कोई काम कर रही होती हूँ तभी तुम्हे बुलाना होता है।”
अपने कलाकार पति आशीष को ताना मारती हुई और दो पल पहले कही अपनी ही बात ना मानती हुई रूही, उसके कैनवास के पास आकर खड़ी हो गई।
रूही – “यहाँ नारंगी लगाना होगा तुम लाल सा कर रहे हो।”
आशीष छेड़ते हुए बोला – “किस चीज़ की लालसा?”
रूही – “इस लाल रंग ने नाक में दम कर रखा है। देखो! जब कोई बिजी, थका हुआ हो तो उसे और गुस्सा नहीं दिलवाना चाहिए। गैस बंद कर के आई हूँ।”
आशीष ने आँखों से माफ़ी मांगी और रूही मुस्कुराकर रंगो का संयोजन करवाने में लग गई। आशीष कलरब्लाइंड था, उसकी आँखें लाल और हरे रंग और उनके कई शेड्स में अंतर नहीं कर पाती थीं। उसे ये दोनों रंग भूरे, मटमैले से दिखते थे। इनके अलावा इन मूल रंगों से मिलकर बने अन्य रंग भी फीके से दिखाई देते थे। वर्णान्ध होने के बाद भी अपनी मेहनत के दम पर आशीष बहुत अच्छा पेंटर बन गया था। हालाँकि, अक्सर उसकी कलाकृतियों में रंगो का मेल या संयोजन ठीक नहीं बैठता था, इसलिए वह इस काम में रूही की मदद लेने लगा। रूही पास के प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका थी और आशीष अपनी कलाकृतियों की कमाई पर निर्भर था। घर की आर्थिक स्थिति साधारण थी पर दोनों एक-दूसरे के प्रेम को पकड़े गृहस्थी की नैया खे रहे थे। रूही के परिजन, सहेलियां उसे इशारों या सीधे तानो से समझाते थे कि वो आशीष की कला छुड़वाकर किसी स्थिर नौकरी या काम पर लगने को कहे। रूही जानती थी उसके एक बार कहने पर आशीष ऐसा कर भी देगा पर वो उस आशीष को खोना नहीं चाहती थी जिसके प्रेम में उसने सब कुछ छोड़ा था। उसे दुनिया के रंग में घोल कर शायद वो फिर कभी खुद से नज़रे ना मिला पाती।
एक दिन स्कूल से घर लौटी रूही कमरे में आशीष के खाँसने की आवाज़ें आईं। कमरे में आशीष खून की उल्टियाँ कर रहा था। रूही को देखकर सामान्य होने की कोशिश करता आशीष लड़खड़ाकर ज़मीन पर गिर पड़ा और बात छुपाने लगा – “ये…ये लाल रंग बना है ना? देखो गलती से फ़ैल गया, मैं साफ़ कर दूँगा।”
उसका खून अधूरी पेंटिंग पर बिखर गया था। इधर आँसुओं से धुंधली नज़रों को पोंछती रूही दौड़कर आशीष के पास आई।
“तुम्हे झूठ बोलना नहीं आता तो क्यों कोशिश कर रहे हो? चलो हॉस्पिटल!”
हॉस्पिटल में हुई जांच में रूही को पता चला कि आशीष को झूठ बोलना आता है। वो कई महीनों से छोटा मर्ज़ मान कर अपने फेफड़ों के कैंसर के लक्षण छुपा रहा था, जो अब बढ़ कर अन्य अंगो में फैल कर अंतिम लाइलाज चरण में आ गया था। अब आशीष के पास कुछ महीनों का वक़्त बचा था। दोनों अस्पताल से लौट आये। अक्सर बुरी खबर का झटका तुरंत महसूस नहीं होता। पहले तो मन ही झुठला देता है कि कम से कम हमारे साथ तो ऐसा नहीं हो सकता। फिर फालतू की छोटी यादें जो किसी तीसरे को सुनाओ तो वो कहेगा कि “इसमें क्या ख़ास है? यह तो आम बात है।” पर वो भी कैसे समझेगा आम बात अगर किसी ख़ास के साथ हो तो उस ख़ास की वजह से ऐसी बातें आम नहीं रहती।
रात के वक़्त आशीष से उलटी तरफ करवट लिए, तकिये पर मुँह सटाये सिसक रही रूही को उसके जीवन का सबसे बड़े ग़म का झटका लगा था। मन के ज्वार-भाटे में बहते कब सुबह हुई पता ही नहीं चला। इस सुबह रूही ने फैसला किया कि दुनिया में आशीष के बचे हुए दिनों को वो रो कर खराब नहीं करेगी और ना ही आशीष को करने देगी। उधर आशीष ने जैसे रूही के मन में जासूस बिठा रखे थे, उसने भी अपना बचा समय अपने जीवन की दो खुशियों को यानी रूही और पेंटिंग्स को देने का निर्णय लिया। एक-एक लम्हा निचोड़ कर जीने में दिन बड़ी जल्दी गुज़रते हैं। टिक-टिक करती घडी पर कैनवास डाल कर, लाल-हरे-भूरे रंग के फर्क पर हँसते दोनों का समय कट रहा था। एक दिन आशीष ने रूही को एक फाइल पकड़ाई जिसमे उसके बीमा, अकाउंट आदि के कागज़ और जानकारी थी। फाइल के अलावा एक पन्नी में लगभग तीन लाख रुपये थे।
“इतने पैसे?” रूही ने चौंक कर पूछा।
आशीष – “हाँ, 2-3 आर्ट गैलेरी वालों पर काफी पैसा बकाया था। पूरा तो नहीं मिला पर पीछे पड़ कर और कैंसर की रिपोर्ट दिखा के रो-पीट कर इतना मिल गया कि कुछ समय तो तुम्हारा काम चल ही जाए। तुम वहाँ होती तो मेरी एक्टिंग देख कर फ्लैट हो जाती।”
रूही – “मुझे नहीं होना फ्लैट, मैं कर्वी ही ठीक हूँ।”
दोनों हँसते-हँसते लोटपोट हो गए और एक बार फ़िर सतह की ख़ुशी की परत में दुखों को लपेट लिया। इस सतह की परत में एक कमी होती है, पूरे शरीर पर अच्छे से चढ़ जाती है पर आँखों को ढकने में हमेशा आनाकानी करती है। कुछ दिनों बाद रूही के नाम एक कुरियर आया और आशीष के पूछने पर रूही ने बताया कि उसने आशीष के लिए ख़ास इनक्रोमा चश्मा खरीदा है। इस चश्मे को लगाकर कलरब्लाइंड लोग भी बाकी लोगो की तरह सभी रंग देख सकते हैं और मूल रंगों में अंतर कर सकते हैं। इस चश्मे के बारे में आशीष को पता था और उसे यह भी पता था कि ये प्रोडक्ट बहुत महंगा और कुछ ही देशो तक सीमित था। कीमत जानकर उसने अपना सिर पीट लिया।
आशीष बिफर पड़ा – “3 लाख! अरे पागल क्या पता तीन दिन में मर जाऊं। इस से बढ़िया तो उन गैलरी वालों पर एहसान ही चढ़ा रहने देता। क्या करूँगा बेकार चश्में का?”
रूही – “तुम्हे मुझपर भरोसा नहीं है? रह लूँगी तुम्हारे बिना। नहीं चाहिए तुम्हारा एहसान। मुझे हरा रंग देखना है, लाल रंग देखना है, जामुनी रंग में जो हल्की मैरून की झलक आती है वो देखनी है, जो तुम्हे कभी समझ नहीं आता तुम्हारी आँखों से मुझे वो कमीना लाल रंग देखना है।”
इतने दिनों से जो ख़ुशी की परत थी वो धीरे-धीरे हट रही थी।
रूही – “अब ये चश्मा पहनो, आँखों को एडजस्ट करने में कुछ मिनट का टाइम लगता है इसलिए सामने नीली दीवार को देखो और आराम करो। बस अभी तुम्हारा कैनवास और कलर्स लेकर आती हूँ।”
रूही बिना कैनवास और रंग लिए लौटी। दुल्हन के श्रृंगार और लाल जोड़ें में रूही आशीष के सामने थी।
लाल रंग देखकर आशीष उस रंग से पुरानी दुश्मनी भूल मंत्रमुग्ध होकर बोला – “ये….ये…लाल…”
हामी में सिर हिलाती रूही आशीष से लिपट गयी। दोनों की आँखों से बहते पानी ने झूठी ख़ुशी की परत धोकर सुकून की नयी परत चढ़ा दी। रूही ने घाटे का सौदा नहीं किया था, उसने तीन लाख देकर अपनी ज़िन्दगी का सबसे अनमोल पल खरीदा था।
समाप्त!
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#ज़हन