“कलयुग ‘
सन 2032, कलयुग अपनी चरम सीमा पर है। जहाँ मानव जीवन का 80% हिस्सा मशीनों पर निर्भर है। हथियार इंसान के लिए प्रमुख गैजेट्स मेँ सम्मिलित हो चुके है। विश्व भर में समाज छोटे-छोटे समुदायों में विभाजित हो चुका है। क्षेत्र, भाषा, रंग, जाति और धर्म के आधार पर मतभेद मानवता पर हावी है। प्रकृति पर अपनी श्रेष्ठता का वर्चस्व बनाने वाले मानव ने अपनी प्रजाति को सुरक्षित व सबल रखने के लिए जिस समाज रुपी आवरण को तैयार किया था, वही समाज आज मानव प्रजाति का सबसे बड़ा दुश्मन नजर आता है। सामाजिक परंपराओं, नीतियों, भेद और वर्चस्व की लड़ाई मोहल्लों से लेकर विश्व भर में सामान्य हो चुकी नजर आ रही है। कहीं कालों और गौरों की वर्चस्व की लड़ाई, कहीं धर्म की जिहाद, तो कहीं क्षेत्र और साम्राज्यवाद। कहीं गणतंत्र की मांग तो कहीं गणतंत्र के नाम पर राजनेताओं की बर्बरता। हर रोज कत्लेआम की खबरों पर टीआरपी बटोरती न्यूज़ एजेंसियाँ।
विकसित देशों की वर्चस्व स्थापित करने की होड़ मेँ दूसरे देशों को कमजोर बनाने की इस नीति के पदचिन्ह बीसवीं शताब्दी में सोवियत रूस को खंडित करने में सर्वप्रथम नजर आए थे। ग्रीस, सीरिया, इजरायल, फिलिपेंस जैसे कई देश इस महामारी की चपेट में पहले ही आकर बर्बाद हो चुके हैं। लेकिन अब यह शक्ति के वर्चस्व की कहानी कतई नहीं रह गई है।
अब यह विश्व परिसर, जो विभिन्न समुदायों में खंडित नजर आता है,, हकीकत में केवल दो समुदायोँ का रह गया है। एक समुदाय जो बहुत छोटा है। वह शासक समुदाय है। दूसरा जो एक बहुत बड़ा समुदाय शोषित समुदाय है। चंद शक्तिशाली बुद्धिजीवीयों ने पूरे विश्व समुदाय को मानसिक तौर से अपना गुलाम बना कर रखा है। गुलामों को आपस में लड़ा कर उनकी मेहनत की कमाई को हड़पना और उन्हीं की लाशों के अपनी रोटियां सेकना इन शासकों का ध्येय है।
विज्ञान के प्रचंड विस्तार के बावजूद कल अधिकृत इस युग में भी आडंबर और अंधविश्वास विकराल रूप धारण किए हुए है। ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन, अमेरिका, तुर्की जैसे विकसित और भारत, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया जैसे विशाल देश भी इस महामारी से ग्रस्त हैँ। जर्मनी और चीन जैसे दो चार देश अपनी एकाग्रता, शक्ति व वर्चस्व को बनाए हुए हैं। अमेरिका जैसा शक्तिशाली देश इस पीड़ा से बौखलाय़ा हुआ है। वहीं पर चीन अपने वर्चस्व के अभिमान में चूर है। तीसरे विश्वयुद्ध की अलार्म बज रही है। केंद्र बिंदु है दुनिया का सबसे बड़ा बाजार भारत देश। हकीकत में यह दशकों से चलते आ रहे शीतयुद्ध का परिणाम है। जो भौगोलिक अधिकार को लेकर नहीं, बल्कि व्यापार के आधार पर है। यह लड़ाई साम्राज्यवाद कि नहीं बल्कि पूंजीवाद की है। भारत उपभोक्ताओं का सबसे बड़ा समुदाय तो है ही साथ ही उसमें चीन को टक्कर देने वाली सस्ती उत्पादन क्षमता भी है। अमेरिका भारत पर आर्थिक तौर पर कब्जा करना चाहता है वहीं चीन इसे अपने प्रतिद्वंदी के रूप में उभरने नहीं देना चाहता है। अतः चीन भारत के पड़ोसी देशों के माध्यम से घुसपैठ, आतंकवाद और सीमा पर सैन्य गतिविधि द्वारा भारत को झूमने पर मजबूर किए हुए है। साथ ही भारत के बाजार पर अपने सस्ती चीजों की सप्लाई कर कब्जा किए हुए हैं। अमेरिका इसके विरोध में भारत को सहानुभूति और आर्थिक सहयोग का लालच देकर भारत को अपने कब्जे में करना चाहता है। यही वजह है भारत और उसके पड़ोसी देश पाकिस्तान के बीच में तकरार पैदा कर युद्ध का माहौल बनाया गय़ा है। पाकिस्तान कभी आतंकवाद के जरिए और कभी कश्मीर पर कब्जा पाने की चाह मे सीमा उल्लंघन कर अंतरराष्ट्रीय मापदंडों को तोड़ते हुए भारत को उलझे रहने पर मजबूर रखता है। जैसे ही भारत पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए युद्ध की तैयारी करता है, चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा हो जाता है। परंतु विश्व भर के पूंजीपतिय़ोँ को युद्ध से लाभ की नहीं बल्कि भारी हानि की आशंका है। युद्ध की संभावनाओं को खत्म कर दिया जाता है। दरअसल इन पूंजीपतियों ने पूरे विश्व को पहले से ही इस तरह से शीत युद्ध में धकेल रखा है। जिसके परिणाम से पूंजीपतियों को मुनाफा ही मुनाफा है। वास्तविकता यह है कि सरकारें सिर्फ नाम की बची है। शासन तो पूंजीपतियों का ही चल रहा है। बेरोजगारी विश्व भर में महामारी की तरह फैल गई है। युवा पीढ़ी ने तो मार काट को अपना रास्ता चुन लिया है और मध्यम वर्ग के लिए बँधुआ मजदूरी मजबूरी बन चुकी है। जो कोई इस खेल को समझने वाला बुद्धिजीवी आवाज उठाता है, तो उसकी आवाज को तुरंत बंद कर दिया जाता है। या उसे कैद कर दिया जाता है। विश्व भर में बनी ये भयावह स्थिति मानवता को विनाश की तरफ धकेलती नजर आती है। कलमकार अपनी कलम की शक्ति से शोषित जनता को जागृत करने का प्रयास करते हैं। परंतु विफलता की वजह है साहित्य़ और पत्रकारिता की विडंबना, कलम की लिखावट को आज ना तो कोई पढ़ना पसंद करता और ना ही किसी के पास इतना वक्त है। साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से किया गया सम्मोहन इतना सघन है, जिसको तोङने के लिए बड़े धमाके की जरूरत होगी।
भारत की स्थिति भी अंदरूनी तौर पर विश्व से अलग नहीं है। कब कौन से शहर में आगजनी हो जाती है, कब धर्म या जाति के नाम पर लाशों के ढेर लग जाते हैं, छोटी-छोटी साधारण घटनाएं कब और कैसे विकराल विपल्व का रूप ले जाती हैं पता भी नहीं चलता। सत्ताधारी पार्टी का एकमात्र उद्देश्य मतदाताओं को आकर्षित करना नहीं, बल्कि विपक्ष को कुचल कर खत्म कर देना रह गया है। एक तरफ इंसान की कार्य क्षमता को मशीनों ने खत्म कर दिया तो दूसरी तरफ आम जनमानस की आर्थिक स्थिति को पूंजीपतियो ने निचौङ कर रख दिया है। सामाजिक दंगों की आड़ में लूट खसौर्ट, बलात्कार व गरीबों का उत्पीड़न आम हो गय़ा है। इसका नुकसान पूंजीपतियों को भी उठाना पड़ता है। क्योंकि लूटपाट के लिए केंद्र बिंदु मुख्यतः रिटेल कंपनियों के शोरूम, मॉल अथवा गोदाम होते हैं। ऐसी घटनाएं अब साधारण है। आए दिन कहीं ना कहीं किसी न किसी शहर में होती रहती है। सब कुछ जंगलराज जैसा हो गया है। आम जनमानस घबराया और सहमा हुआ, परिवार के गुजर-बसर और सुरक्षा की चिंता में डूबा रहता है। शिक्षालय नाम मात्र के बचे हैं और शिक्षार्थी लुप्त होते जा रहे हैं। कन्याओं और महिलाओं का घर से निकलना दुभर है। 70 प्रतिशत आम आदमी की कमर ऋण ने तोड़ रखी है और महंगाई की सीडी आसमान छू रही है। लाचारी और बेबसी चारों तरफ छाई हुई है। परंतु कोई कुछ कर नहीं पा रहा, क्योंकि जातिवाद, धर्मांधता, क्षेत्रवाद, और भाषावाद के सम्मोहन व अंधविश्वास की कितनी ही परतों तले इनसान को दबा दिय़ा गय़ा हैं। जिनसे निजात पाना शोषित वर्ग की क्षमता से बहुत परे है।
कुछ कलमकार और कुछ पत्रकार इस भ्रम को तोड़ने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं। परंतु उन्हें सुनने और पढ़ने वाला कोई नहीं है। अगर कोई अपना प्रभाव छोड़ता भी है, तो उसे सत्ता व शक्तिधारी नहीं छोड़ते है। फिर भी समाज की स्थिति, समय की मांग और अपनी कर्तव्य निष्ठा को ध्य़ान में रख ये कलमकार उत्पीड़न तथा दंड भुगत कर भी अपने प्रयास को जारी रखते हैं। ऐसा ही एक कलमकार संपूर्ण निष्ठा से समाज की सेवा करने वाला समाज सेवक करण सिंह अपनी कलम और आवाज को शमशीर बनाकर दोनों हाथों से लड़ाई लड़ते हुए सेनानी बनकर इस य़ुद्ध को अपने ही अंदाज में लङे रहा है। लोगों को हकीकत का आईना दिखाना और उन्हें जागृत करना ही उसका उद्देश्य है। धमकियां सुनना, परेशानिय़ाँ सहना और सजा काटना जैसे उसकी आदत हो गई है। जब भी ऐसी कोई प्रस्थिति आती है तो आपनी आर्थिक सबलता और सामाजिक लोकप्रियता की वजह से सत्ता और शक्ति धारियों पर भारी पड़ फिर से अपना मोर्चा खोल देता है। अदम्य साहस और सच्चाई का धनी, विश्वास और चेतना की ऐसी ज्योय जला देता है, जिसकी सुगंध धीरे-धीरे पूरे देश में फैले वहसीयत के आवरण को भेदने लगती है। पाँच वर्ष के निरंतर प्रयास के बाद धीरे-धीरे अपने प्रसार की सीमाओं को सीमा पार फिर समुद्र पार तक ले जाता है। विश्व भर में पूंजीपतियों द्वारा बिछाए इस चक्रव्यू का भेद खोल लोगों में चेतना और कर्तव्यनिष्ठा को जगाता है। आवाज में आकर्षण और भाषणों में सम्मोहन की शक्ति के वरदान के साथ लोगों को प्रभावित करने में काफी हद तक सफलता पा लेता है। बदलाव के कुछ चिन्ह देखने लगे हैं। शासक वर्ग के पूंजीपतियों का वर्चस्व अब डगमगाने लगा है। अपना वर्चस्व खोता देख, य़े शासक पूंजीपति विकसित देशों के पूंजीपति से मिल षड्यंत्र की रचना कर डालते हैं। इस बार जब वह हिंदपुरुष विदेश यात्रा पर निकला तो वापस नहीं आया। लेकिन परिणाम इन शासकों की सोच के विपरीत पहले से ही अपना रुख दर्शा चुका था। उनके बोय बीज लहराने लगे थे और एक संपूर्ण क्रांति का आगाज कर चुके थे। दशक खत्म होते होते जन-जन इस क्रांति का अंकुर बन चुका था। जो खोया है उसकी भरपाई तुरंत हो जाए यह तो संभव नहीं है। आर्थिक परिस्थितियां बहुत नाजुक हो चुकी है। विकास को पटरी पर वापस लाना इतना आसान नहीं रहा है लेकिन वातावरण में संयम और शांति वापस आ चुके हैं। फिर से प्रेम की पौध लगाई जाने लगी है। आडंबर और अंधविश्वास का अंधकार खत्म हो चुका है। मानव मानवता की राह पर वापस लौटने लगा है। देखना यह है जितने साल इंसान पीछे जा चुका है उसकी भरपाई कब तक कर पाता है।
अंबर
# स्वयं रचित