कलम
कलम
‘भइया, ये कलम का पैकेट ले लो सिर्फ 20 रुपये का है’ आठ दस बरस की एक बालिका नये पैनों के कुछ पैकेट लिये घूम-घूम कर पैन बेचने की कोशिश कर रही थी । उन पैकेटों में रंग-बिरंग पैन थे जिन्हें वह कलम कह कर बेच रही थी । लोग चलते चलते उस पर एक निगाह डालते और बिना रुके ही आगे बढ़ जाते । फिर भी वह बालिका उम्मीद नहीं छोड़ती और कुछ दूरी तक उनके पीछे-पीछे चलती रहती । ‘भइया, ले लो न’ बालिका हरेक से यही कह रही थी । अभी तक पैन न बिकने के बाद भी उसके चेहरे पर निराशा के भाव नहीं थे । पैन देखने में बहुत खूबसूरत लग रहे थे । पैकिंग भी बहुत बढ़िया थी । उन महिलाओं को जिनके साथ उनके बच्चे थे वह बालिका पैन बेचने के लिए ज्यादा कोशिश कर रही थी । पैनों के रंग-बिरंगे पैकेट देख कर बच्चे कुछ क्षण के लिए उसके पास रुक जाते मचल जाते । पर उनकी माताएँ उन्हें लगभग खींचती सी आगे बढ़ जातीं । वह बच्चों को डाँट नहीं रही थीं और अपनी धुन में ही चली जा रही थीं मानो उन्हें मालूम हो कि रंगों की दुनिया बच्चों को बरबस आकर्षित कर लेती है इसलिए बच्चे कहीं भी अटक जाते हैं । शायद वे यह भूल रही थीं कि जो बालिका रंग-बिरंगे पैन बेच रही थी वह भी बच्चा ही है । फर्क यह था कि उस बालिका को मालूम था कि उसकी हैसियत उन पैनों से खरीदने की नहीं है, उनसे लिखने की बात तो दूर । उसे उसके माँ-बाप ने यह समझाया था कि ‘सुनो बेटा, हलवाई अपनी दुकान की मिठाई नहीं खाता है इसलिए तुम भी इन पैनों को बेचोगी, न कि उनसे स्नेह करोगी’ । गरीब माँ-बाप की बात उसे तुरन्त समझ आ गयी थी ।
पैनों के कुछ पैकेटों के साथ-साथ उसके पास सफ़ेद काग़ज़ के छोटे टुकड़ों वाला एक पैड भी था ताकि जो खरीदे वह उस पर चला कर देख सके । उसके प्रयास जारी थे । पटरी पर जब दायें बायें कोई संभावित ग्राहक नज़र नहीं आता था तो वह उन पैनों के पैकेटों पर लिखी इबारतों को पढ़ने लगती थी । भले ही वह उन इबारतों को समझ न पा रही हो पर उनकी सुन्दर छपाई उसके लिए आकर्षण का केन्द्र बनी हुई थी । बालिका का बाल्यकाल था तो उसकी उम्मीद का भी बाल्यकाल था । बचपन का भोलापन अभी उस पर रुका हुआ था । पैन बेचना मानो उसके लिए एक ध्येय था नाकि व्यवसाय । व्यवसाय होता तो उसके मुख पर न बिकने की चिन्ता की लकीरें दिख सकती थीं । पर वह तो उछलती कूदती पटरी पर इधर से उधर घूम रही थी । सुबह से हाथ में पकड़े पाँच पैकेट अभी गिनती में पाँच ही थे । दोपहर हो चली थी । बाजार में आये लोगों को भूख लग चुकी थी । उनके साथ आये बच्चे भी भूखे थे । वे किसी न किसी खाने पीने की दुकान पर खाते नज़र आ रहे थे । बच्चों के हाथ में कुछ खाने पीने की चीज़ें थीं । वह माँ-बाप की तरह जल्दी नहीं खा सकते थे इसलिए बाजार में ही खाते पीते चल रहे थे । पैन बेचने वाली वह बालिका तो सुबह ही घर से चाय वगैरा पीकर आ गई होगी । उसे पता ही नहीं था कि सभ्य सँस्कृति में सुबह का नाश्ता अलग, दोपहर का लंच अलग और रात का डिनर अलग होता है । इसके अलावा बीच बीच में स्नैक्स वगैरा भी खाने होते हैं जिससे कि पोषण ठीक रहे । उसे तो यह पता था कि माँ सुबह चाय पीकर रोटी खाकर दूसरे घरों में काम करने जाती है और पिता भी सुबह ही चाय पीकर रोटी खाकर रोजी-रोटी कमाने निकल जाते हैं । सभी फिर रात को ही एक बार इकट्ठे मिलते हैं । दोपहर में तो कभी इकट्ठा हुए ही नहीं तो दोपहर में लंच का क्या मतलब उसे नहीं मालूम था । हाँ, जैसे चलते चलते सब थक जाते हैं तो वह भी थक ज़रूर गई थी क्योंकि थकने के कोई पैसे नहीं होते । एक दुकान के बाहर बैठकर सुस्ता रही थी । सूर्य की दिशा बदलती जा रही थी । सूर्य भी तो सुबह सुबह अपनी ड्यूटी पर निकलता है । पर वह तो अपना सामान सभी को मुफ्त बाँट देता है । वह भी शायद निकलने से पहले ही नाश्ता कर लेता होगा और शाम को ढलने के बाद ही घर पहुँच कर कुछ खाता पीता होगा । किसी ने सूर्य को कभी नाश्ता करते, लंच करते या डिनर करते नहीं देखा, स्नैक्स चबाने की बात तो दूर । तो इसका अर्थ यह हुआ कि बालिका भी सूर्य की भाँति ही थी ।
‘बेटी, ये पैन कितने के हैं ?’ एक संभ्रांत पुरुष ने पूछा । पैन बेचने वाली बालिका अचानक जैसे सपना टूटने से जाग उठी हो । वह खड़ी हो गई और बोली ‘अंकल, यह पूरा पैकेट 20 रुपये का है’ । ‘बेटी क्या तुम मुझे एक पैन बेच सकती हो, मुझे एक ही पैन चाहिए ?’ उस व्यक्ति ने पूछा । ‘मुझे पता नहीं, मैं तो पूरा पैकेट ही बेचती हूँ, खुल गया तो शायद न बिके’ बालिका ने जवाब दिया था । ‘बेटी, अगर मैं पूरा पैकेट खरीद लूँ तो तुम्हें कितने पैसे बचेंगे ?’ बालिका ने तुरन्त जवाब दिया ‘पूरे 20 रुपये और ये मैं शाम को घर ले जाकर बाबू जी को दे दूँगी ।’ उसकी सरलता पर वह व्यक्ति मुस्कुरा उठा । उसने फिर पूछा ‘बेटी, तुम कौन सी कक्षा में पढ़ती हो ?’ यह सुनकर बालिका जमीन पर देखते हुए बोली ‘मैं स्कूल नहीं जाती, मेरे माता-पिता के पास मुझे स्कूल भेजने के पैसे नहीं हैं, बिना पैसों के कोई कैसे स्कूल जाता है ?’ ‘तुम पढ़ना चाहती हो ?’ व्यक्ति ने फिर पूछा । ‘हाँ, पढ़ना तो चाहती हूँ ।’ बालिका ने फिर सरल उत्तर दिया था । ‘अरी ये पैन कितने के हैं ?’ किसी महिला ने पूछा था । ‘आंटी, बीस रुपये का एक पैकेट है इसमें पाँच पैन हैं ?’ ‘बीस रुपये का, इतना महँगा, चल छोड़, एक पैकेट दे दे और ये ले 20 रुपये’ कह कर महिला ने पैकेट लिया और चली गई । ‘बेटी, मैं तुमसे पूछ रहा था तुम पढ़ना चाहती हो और तुमने हाँ कहा । मैं तुम्हारे पढ़ने की व्यवस्था कर देता हूँ । मुझे बताओ तुम कहाँ रहती हो और तुम्हारे माता-पिता कब घर पर मिलेंगे ।’ उस व्यक्ति ने लम्बी बात की थी । ‘माँ तो जल्दी आ जाती है उसे घर का सारा काम करना पड़ता है, बाबू जी देर से आते हैं, यही कोई रात के आठ बजे तक’ बालिका ने बताया । ‘ठीक है मैं शाम होने से पहले यहीं आऊँगा और तुम्हारे साथ तुम्हारे घर चलूँगा’ तुम यहीं मिलना । बालिका खुश थी । उसका एक पैकेट भी बिक गया था और उसका स्कूल जाने का सपना भी पूरा होने को था ।
शाम होने से पहले वह व्यक्ति उस बालिका के पास आ पहुँचा । तब तक बालिका के चार पैकेट भी बिक चुके थे । उसने बालिका को अपने घर ले चलने को कहा । बालिका बोली ‘अंकल, बस एक पैकेट रह गया है, यह बिक जाये तो चलती हूँ ।’ ‘इस बचे हुए पैकेट को मैं खरीद रहा हूँ, लाओ मुझे दे दो और यह लो 20 रुपये’ । हालाँकि वह बालिका को उस पैकेट के 100 रुपये देना चाहता था । पर कुछ सोच कर वह रुक गया था । बालिका ने सहर्ष 20 रुपये ले लिये और अपना थैला समेट कर उस व्यक्ति को लेकर अपने घर की ओर चल पड़ी । झुग्गी-झोंपड़ी काॅलोनी की एक झुग्गी के पास पहुँच कर बोली ‘यह हमारा घर है । माँ … माँ … ।’ माँ बाहर आई । ‘यह अंकल मुझे स्कूल भेजना चाहते हैं, इसके लिए तुमसे बात करने आये हैं ।’ माँ ने बालिका का हाथ पकड़ कर उसे अंदर खींचा और उस व्यक्ति को अन्दर आने को कहा । अन्दर पहुँचने पर उस व्यक्ति ने देखा कि एक किनारे में चूल्हा जल रहा है, कुछ बर्तन पड़े हैं, दीवारों पर देवी-देवताओं के कैलेण्डर टँगे हैं । कैलेण्डर पुराने थे क्योंकि उनकी तारीखों वाला हिस्सा काट कर अलग कर दिया गया था । अब वह कैलेण्डर सदाबहार हो गये थे । बीच के हिस्से में एक दरी बिछी थी और एक किनारे में चारपाई बिछी थी । चारपाई के ऊपर उस व्यक्ति ने देखा कि एक बैनर बिछा था जिस पर लिखा था ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ । माँ ने उस व्यक्ति को चारपाई पर बैठने को कहा । वह व्यक्ति ठिठक गया । उस बैनर पर देश का भविष्य बनाने वाली इबारत पर वह कैसे बैठे ।
‘अब मेरी बात सुनो । इस बालिका को मैं स्कूल में प्रवेश दिला रहा हूँ । अब से यह बालिका स्कूल जायेगी । इसकी स्कूल की फीस, यूनिफाॅर्म, किताबों, स्टेशनरी का सभी खर्चा मैं दूँगा । जब तक यह पढ़ना चाहे यह पढ़े । जितनी ज्यादा पढ़ना चाहे यह पढ़े । बाज़ार में पैन बेचकर यह जो कमाती है वह पैसे भी मैं दूँगा । अगर तुम्हें एतराज न हो तो मैं कल से ही कार्रवाई शुरू कर देता हूँ । तुम इसकी माँ होने के नाते फैसला कर सकती हो । अभी जवाब दो ।’ माँ बोली, ‘आप कौन हैं ? मैंने आपको पहचाना नहीं ?’ शाम के धुंधलके में आँखों को मिचमिचाती माँ बोली । ‘मैं … मैं ….’ यह कहते हुए उस व्यक्ति ने चारपाई पर बिछा वह बैनर उठा लिया और बोला ‘अभी थोड़ी देर में आता हूँ ।’ आधे घण्टे के बाद वापिस आया तो उसके हाथ में कुछ चद्दरें थीं जो उस व्यक्ति ने बालिका की माँ को थमा दीं । तब तक बालिका के पिता भी आ गये थे । बालिका के माता-पिता दोनों हाथ जोड़े खड़े थे ‘आप जैसे महान लोग अगर ऐसे ही करते रहें तो देश की लक्ष्मी में सरस्वती के गुण भी आ जायेंगे । आज हमारी बिटिया ’कलम’ बेच रही है । अब आपकी वजह से वह अपना भाग्य लिखेगी उसी ‘कलम’ से ।