कलंक
शुद्ध श्वेत से वसन पर,लिपट गया ज्यों पंक।
धोने से धुलता नहीं, ऐसे लगे कलंक।। १
काजल से काला अधिक, जीवन भर का डंक।
काजल धुल जाये मगर, धुलता नहीं कलंक।। २
दामन गंदा कर गया, लगा छिटक कर पंक।
लाख बचाते हम रहे, फिर भी लगा कलंक।।३
प्रेम दिवानी हो गई, प्रियतम भर लो अंक।
तुम बिन अब जीना नहीं, चाहे मिले कलंक।।४
हर्षित मन ऐसे खिला, कमल खिले ज्यों पंक।
जीवन धारा प्रीत है, जग क्यों कहें कलंक।। ५
मन ही मन मैं सोचती, होती काश मयंक।
कोई अपनाता मुझे, मेरे सभी कलंक।।६
सब भूखे हैं प्रेम के, राजा हो या रंक।
सबसे पावन प्रेम है, होता नहीं कलंक।। ७
चढ़ा प्रेम का यूँ जहर, ज्यों बिछुआ का डंक।
चुपके से आना पिया, देना नहीं कलंक।।८
-लक्ष्मी सिंह