कर्मयोग बनाम ज्ञानयोगी
फिर प्रश्न-
कर्मों का संन्यास- ‘ज्ञानयोग’
या फिर ‘कर्मयोग’
कौन श्रेष्ठ है ?
उत्तर मिलता है-
दोनों कल्याणकारी हैं
पर
‘कर्म संन्यास’ से श्रेष्ठ है
कर्मयोग
कर्मयोग के बिना
‘ज्ञानयोग’ कहाँ ?
‘कर्मयोग’ ही तो है
जो प्रशस्त करता है
‘ज्ञानयोग’ का मार्ग.
कर्मों को प्रकृति के लिए छोड़
आसक्ति त्याग
कर्म करने वाला
‘पाप’ से वैसे ही लिप्त नहीं होता
जैसे जल से कमल-पत्र
यही है
आत्मा की प्रकृति,
आत्मा किसी का पाप ग्रहण नहीं करती
और न ही पुण्य
सभी स्थितियों में समता
यही तो है लक्षण
उत्तम पुरुष का
यही आधार है
उत्कृष्ट जीवन का.
अस्तु,
‘प्रिय’ को लेकर हर्ष
अप्रिय होने पर ‘विषाद’
निषिद्ध