कर्तव्य
कर्तव्य
“कर्तव्य” शब्द का अभिप्राय उन कार्यों से होता है, जिन्हें करने के लिए हम नैतिक रूप से प्रतिबद्ध होते हैं। इस शब्द से यह बोध होता है कि हम किसी कार्य को अपनी इच्छा, अनिच्छा या केवल बाह्य दबाव के कारण नहीं करते अपितु आंतरिक नैतिक प्ररेणा के कारण करते हैं। विषम परिस्थितयों में भी गंतव्य क़ी ओर बढ़ते जाना ही वास्तविक कर्म होता है।हमारी विशेषताएं जब स्वभाव का अंग हो जाती हैं तभी वो “गुण” कहलाती हैं। मनुष्य जीवन की स्थिरता एवं प्रगति का अस्तित्व एवं आधार शिला है, उसकी कर्तव्य परायणता। यदि हम अपनी जिम्मेदारियों को छोड़ दें और निर्धारित कर्तव्यों की उपेक्षा करे तो फिर ऐसा गतिरोध हो जाय कि प्रगति एवं उपलब्धियों की बात तो दूर मनुष्य की तरह जीवन यापन कर सकना भी सम्भव न रहें।परिस्थितियों के अनुसार किसी को अपनाना या त्याग देना हमारा सबसे बड़ा अवगुण होता है।शीतलता चंदन का गुण है,जबकि चंदन वृक्ष पर सदैव विषैले सर्प लिपटे रहते हैं किंतु वह अपने सद्गुणों पर स्थिर रहता है तो हम मनुष्य सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना होते हुए भी अपने दैविक गुणों पर दृढ नही रह पाते, जिसे सृष्टि रचयिता ने बुद्धि विवेक से पुरस्कृत कर विशिष्ट बनाया है।कदाचित हम दोगलेपन में इतना रम गए हैं और यह समझने में असहज हैं कि आचार-विचार की शुद्धता ही जीवन का मुख्य उद्देश्य एवं उपलब्धि है।दया, परोपकार, क्षमा, साहचर्य और दान जैसे पंच तत्व हमारी रचना में ही समाहित हैं और उन पंच तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनसे ये मानव शरीर निर्मित हुआ है।
वास्तव में मानवता ही नैतिकता का आधार है।सभी नैतिक मूल्य सत्य अहिंसा प्रेम सेवा शांति का मूल मानवता ही है।आत्मा के प्रति हमारी जिम्मेदारी है। ईश्वर के प्रति भी। उन्हीं के कारण हमारा अस्तित्व है। आवश्यक है हम आत्मा की आवाज सुनें ओर परमात्मा द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए मानव जीवन को सार्थक बनाने के लिए प्रयत्नशील रहे।
-नीलम शर्मा