कर्ण की शूद्रता
जन्मा था वो
गर्भ से
प्रकृति और पुरुष
के मेल से ।
नौ मास का
प्रसव काल
ग्रहण किया
मनुष्य आकार ।
देह वहीँ
दिमाग वही
अस्थि-मज्जा में
लाल रंग का खून वही ।
आकाश ठहरा था
नक्षत्र थे गतिमान
सूर्य ना निस्तेज था
चाँद-तारों का खेल था।
राजनितिक प्रपंच हुआ
ब्राह्मणों का मंच हुआ
आवाज निकली मंच से
जन्मा है वो कर्ण से ।
क्या वगैर बीज के
वृक्ष बनता है..?
क्या मरुस्थल में
कभी फूल खिलता है..?
राजा का अभिमान था
पुरोहितों को मान था
दबाना था व्यभिचार को
नितिज्ञों के दुराचार को ।
समाज जड़-मूढ़ था
शस्त्र से भयभीत था
शास्त्र से निरूत्तर था
शिक्षा से जीर्ण था ।
बड़ा हुआ वो वीर था
रणभूमि में रणधीर था
योग्यता अभिशाप थी
क्योकि
शुद्र उसकी जाति थी ।
टकराया गांडीव से
अपनी माँ के खून से
जो इंद्र का अंश था
पाण्डु का वंश था ।
कुरुक्षेत्र में हाहाकार था
चक्र गांडीव परेशान था
तोड़ रहा कुरीति को
कर्ण का हर वाण था ।
मजबूर हुआ कुचक्र से
राजनीतिक दुष्चक्र से
फिर अनीति घिर आई
कृष्ण का भेष धर आयी।
छुटे हाथ शत्र से
उठे शत्र निर्लज्ज के
रणनीति ने बदला भेष
हुआ सूर्य निस्तेज ।
ठो रहा इतिहास को
कर्ण के अभिशाप को ।
अमीर की सवर्ण है
हर गरीब निम्न वर्ण है ।
शुद्र भी इंसान है
सवर्ण भी इंसान
जाति-धर्म में बाँट दिया
मनुष्यता का ज्ञान ।।