*कर्ज़*
*कर्ज़ *
मातृ-ऋण से जग में
होता नहीं कोई उऋण
जिस जननी ने जन्म दिया
अपने स्नेह-जल से सींचकर
पाला-पोषा और बड़ा किया
उस माँ को सर-आँखों पे बिठाना है
हमेंअपना कर्ज़ चुकाना है ।
पितृ-ऋण से जग में
होता नहीं कोई उऋण
जिस पिता ने पढ़ाया -लिखाया
संरक्षण भरा हाथ रखकर
स्वाबलंबन के योग्य बनाया
उस पिता का बोझ उठाना है
हमें अपना कर्ज़ चुकाना है ।
गुरु-ऋण से जग में
होता नहीं कोई उऋण
जिस गुरु ने गढ़ मूर्त बनाया हमें
अंतर हाथ सहारा देकर
काटकर खोट जीवन-मर्म सिखाया हमें
उस गुरु के आगे शीश झूकाना है
हमें अपना कर्ज़चुकाना है।
मातृभूमि के ऋण से जग में
होता नहीं कोई उऋण
जिसकी मिट्टी है चंदन
करते हम उनका वंदन
जिसने बनाया हमें फौलादी है
उस मिट्टी का तिलक लगाना है
हमें अपना कर्ज़ चुकाना है ।