करोगी तुम सोलह श्रृंगार, निहारोगी दर्पण हर बार !**************
करोगी तुम सोलह श्रृंगार,
निहारोगी दर्पण हर बार !*******************
रूप यौवन अनुपम अभिराम
बसन छीने छवि कोटिक काम
नयन तकते न थकें अविराम
प्रकृति का सुन्दरतम उपहार,
प्रीत का ज्यों अटूट आधार
करोगी तुम सोलह श्रृंगार,
निहारोगी दर्पण हर बार !*******************
देखता कौन तुम्हे ये मौन
दर्प दर्पण का छीने कौन
ठिठक यूँ ही दर्पण रह जाए
मूक दर्शक ज्यों हो असहाय
तुम्हें यूँ पल पल रहा निहार
करोगी तुम सोलह श्रृंगार,
निहारोगी दर्पण हर बार !*******************
रूप रस रची गंध अनुराग
प्रीत बस पावन मधुर सुहाग
भ्रमर गुंजित मदमस्त पराग
मौन ही बस मन की मनुहार
विकसता जहाँ प्रीत त्यौहार
करोगी तुम सोलह श्रृंगार,
निहारोगी दर्पण हर बार !*******************