करुणभाव
एक शिकारी जंगल पहुँचा,
करने को, शिकार।
जोश भरी थी मन में ऐसी,
धून था शीश सवार।
जाल बिछाया, दाना डाला,
छुप गया झाड़ी पार।
तभी अचानक एक हिरणी का,
पैर फंसे जाल के तार,
उछली पुछली सिर को पटकी,
छुड़ा न पायी अपना जाल,
हारी मारी लगी हांफने,
हुआ बहुत बेहाल।
इधर खुश हो नाच उठा, शिकारी,
छुटी हमारी विपदा भारी।
अब ऐसे ही हिरण फसाऊॅंगा,
पैसे खुब कमाऊॅंगा।
एक महल बनाऊॅंंगा,
अपनी प्यारी गुड़िया रानी—,
तभी नजर पड़ी मृगशावक पर,
देख रहा था करुण भाव धर,
कभी इधर उधर कभी,
कभी फसे हिरण की ओर।
तरप रहे थे हृदय भी उसके,
भर कर नैना नोर।
माँ भी चुप, बच्चे भी चुप,
पर न चुप था व्यथा की शोर।
देख दया व्याध को आया,
मानो उसने ही कुछ खोया।
याद आ गई बिटिया रानी
है जो जीवन की जिंदगानी।
देख मुखमंडल की अनकही वाणी,
जो थी दर्दभरी कहानी।
बेसहारा बने खड़े थे जैसे,
पत्र विहीन महीरुहा की छाया।
अनकहे शब्द ने ही,
कर दिया हृदय को तार- तार।
होते सब बच्चे एक से।
फिर करुॅं मैं कैसे अत्याचार।
धाव हिरण का जाल छुड़ाया,
उर शावक में हर्ष समाया।
फुदक- फुदक कर, कहा फिर मानो,
दयावान न तुझसा कोई और।
और शिकारी जब घर को आया,
नन्ही गुड़िया को गले लगाया।
मन ही मन से जाने,
क्या मन को समझाया।
बदले उसने अपने विचार——।
उमा झा