*करीब का दुकानदार (कहानी)*
करीब का दुकानदार (कहानी)
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लॉकडाउन चल रहा था । घर में दाल समाप्त हो गई । दिनेश बाबू हाथ में झोला लेकर गली के नुक्कड़ पर हरिराम की जनरल मर्चेंट की दुकान पर चले गए । एक किलो अरहर की दाल ली । पैसे देते – देते कुछ ख्याल आया । बोले “एक किलो मूँग की दाल भी दे दो ।”
दुकानदार ने एक किलो मूँग की दाल भी दे दी। फिर पैसे माँगे तो दिनेश बाबू की जेब में पैसे कम थे। वह तो केवल एक किलो अरहर की दाल खरीदने के हिसाब से ही गए थे । कहने लगे “इतने रुपए रख लो । बाकी बाद में दे जाऊँगा ।”
दुकानदार बोला “नए ग्राहकों से हम उधार नहीं करते!”
” मैं नया नहीं हूँ। यहीं पड़ोस में रहता हूँ।”- सुनकर दुकानदार ने आँखें चौड़ी करके दिनेश बाबू को एक निगाह से देखा और कहा “झूठ मत बोलो भाई साहब ! अगर पड़ोस में रहते होते तो कभी तो दर्शन देते ?”
अपमानित होकर दिनेश बाबू केवल एक किलो अरहर की दाल लेकर घर लौट आए। काफी देर तक सोफे पर पड़े हुए सोचने लगे कि 20 साल की जिंदगी मैं सिर्फ इतना ही कमाया कि आज घर के पड़ोस में दुकानदार से चार पैसे का उधार भी नहीं ला सकता।
फिर जब विचार करने लगे तो उन्हें अपनी गलती महसूस होने लगी। असल में उनकी दिनचर्या भी यही थी कि सुबह उठे, नहा धोकर नाश्ता करके कार में बैठे और सीधे ऑफिस चले गए । जब शाम को लौटना हुआ तो जो – जो सामान की लिस्ट खरीदारी की हुआ करती थी ,वह मॉल में जाकर वहाँ पर बड़ी-बड़ी दुकानों से खरीद लिया । घर के आस-पास के न दुकानदारों से उनका परिचय हुआ और न कभी उन दुकानों में जाकर उन्होंने कभी झाँका । हाँ ! बचपन में जब पिताजी को कोई सामान मँगवाना होता था तो वह दिनेश बाबू को आस पड़ोस की ही किसी दुकान पर भेजते थे । दुकानदार भी उन दिनों दिनेश बाबू को देखकर पहचान जाते थे । अनेक बार पिताजी की उँगली पकड़कर जब दिनेश बाबू बचपन में बाजार से गुजरते थे तो कम से कम 20 दुकानों पर पिता जी नमस्ते करते हुए आगे बढ़ते थे । उस समय घर में पैसा कम था लेकिन आस पड़ोस में इज्जत और जान पहचान आज के मुकाबले में कई गुना ज्यादा थी ।
तभी पत्नी ने आकर पूछा “ऐसे कैसे मुँह लटकाए बैठे हुए हो ? क्या सोच रहे हो ? ”
दिनेश बाबू ने दृढ़ संकल्प के साथ कहा “अब हमेशा करीब के दुकानदार से ही सामान लेंगे। वही हमारा मित्र है ।”
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लेखक: रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश )
मोबाइल 99976 15451