करवटें
समय भी लेता रहता करवट
दिन- प्रतिदिन वक़्त- बेवक्त
मानव आकलन करता रहता
समय की करवटें झेलता रहता ।
महँगाई, अत्याचार व अनाचार
सहता परतंत्र सा जीवन
मजबूर है, क्या करें
बदलती करवटों के साथ समझौता
भी तो करना पड़ता ।।
भूमि भी लेती कदाचित् करवट
अनचाही, अनकही पीड़ा देती
छीनती कितनों का सुख- चैन
समा जाता सब भूमि के उदर में ।।
प्रलय तो बन जाता सैलाब
ऐसी करवट मानव- मात्र को
पीड़ा के सिवाय कुछ न देती।।
पर्यावरण प्रदूषण के चलते
प्रकृति का भी मिज़ाज बिगड़ता
करवट लेने के ही बहाने
धरा पर उपद्रव है मचता ।।
तूफ़ान, ओला व अतिवृष्टि
मानो सब प्रतिशोध हैं लेते ।।
प्रकृति, सृष्टि, वक़्त ये सब
करवट कब बदलें कोई जान न पाये
ये तो है उस प्रभु की माया
जिसको मानव कभी समझ न पाया ।।
** मंजु बंसल **
जोरहाट
( मौलिक व प्रकाशनार्थ )