कमज़ोरियाँ
भरी दोपहर में मुझ पर अँधेरा छा गया जैसे
मौसम-ए-बहार में ही पतझड़ आ गया जैसे।
ज़िन्दग़ी की शाख़ पर दो पत्ते थे बाकी
एक बे-रहम झोंका शाख़ हिला गया जैसे।
मैं खुदकों बड़ा ताक़तवर मानकर चला था
मेरी कमज़ोरियाँ मुझे वक़्त बता गया जैसे।
जॉनी अहमद ‘क़ैस’
भरी दोपहर में मुझ पर अँधेरा छा गया जैसे
मौसम-ए-बहार में ही पतझड़ आ गया जैसे।
ज़िन्दग़ी की शाख़ पर दो पत्ते थे बाकी
एक बे-रहम झोंका शाख़ हिला गया जैसे।
मैं खुदकों बड़ा ताक़तवर मानकर चला था
मेरी कमज़ोरियाँ मुझे वक़्त बता गया जैसे।
जॉनी अहमद ‘क़ैस’