कमीज से कफन तक
कमीज का टूटा बटन स्वच्छ कफन पर कौंधा।
सुई और धागा सब जीवन भर पड़ा रहा औंधा।
सर्द हुए पूस को, खुली हुई छाती पर झेला अकेला ही।
तपे हुए ग्रीष्म को, नंगी पीठ पर करने दिया खेला भी।
जन्म से जीवन भर बटन पिरोने को व्याकुल था।
कमीज गयी फट कभी सिवन उधड़ कुछ भी न माकूल था।
मेरे इस जीवन में बटन रहा अर्थहीन।
मैं ज्यों अस्तित्वहीन लालसा व लोभहीन।
कफन के बाजू में आज पड़े सीधे हैं धागा भी साथ में।
सारा बदन खाली है बटन टाँकने हेतु ऐसा अहसास में।
सूर्य से अंधेरे तक बटन रहा भागता।
कहिए इसे कैसे मैं जीवन में टाँकता।
ढेर सारे चेहरे थे जन्मे हुए रिश्ते से।
घूम रहे लोग थे समाज में फरिश्ते से।
टांक दिया होता जो नहीं मिला वह रे।
देखा जब दिखा मुझे भावहीन चेहरे।
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अरुण कुमार प्रसाद /24/10/22