कमाई और ख़र्चे
महीने भर कमा कर जो रुपैया हाथ आता है।
उसे पाकर परेशानी, थकन मन भूल जाता है।
ख़ुशी बस आठ दिन रहती है अपनी ज़िंदगानी में-
सिसकता बीस दिन फिर बेबसी में बैंक ख़ाता है।
न इस तनख्वाह से होता गुज़ारा भी महीने भर।
चढ़ा रहता उधारी का बड़ा सा भाग अपने सर।
कठिन है एक मुठ्ठी आमदन में घर चला पाना-
बहुत मन मार कर चलते तभी चलते हैं अपने घर।
जरुरत हर घड़ी सुरसा के जैसे मुँह रहे खोले।
अजी मँहगाई भी अपनी कहानी चीख़ कर बोले।
करें इक आरज़ू पूरी हज़ारों छूट जाती हैं-
नहीं भरते कभी अरमान के ये जादुई झोले।
कमाई और ख़र्चे का ग़ज़ब जी ताना बाना है।
कमाई आठ आना और ख़र्चा सोलह आना है।
युँ ही चलता रहेगा सिलसिला ख़र्चे कमाई का-
जरुरत हो न हो पूरी मगर फिर भी कमाना है।
रिपुदमन झा ‘पिनाकी’
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक