कमल के ऊपर कमल
10• कमल के ऊपर कमल
कभी सिलोन के राजकुमार कुमारगुप्त ने वृद्ध महाकवि कालिदास को उनकी विद्वता से प्रभावित होकर अपने यहाँ बतौर अतिथि आने के लिए आमंत्रित किया था।राजकुमार स्वयं भी बहुत श्रेष्ठ कवि थे। कालिदास वृद्धावस्था में भी अपने अभिन्न मित्र, राजा भोज के न चाहते हुए भी दरबारी कवि का पद त्याग कर, अपनी सुरक्षा की चिंता न करते हुए भी अति दुर्गम नदी, पर्वत, जंगल पार कर महीनों की यात्रा के बाद अंततः सिलोन पहुंचे। लेखन- सामग्री साथ लिए रास्ते में एक रचना महाकवि ने कुमारगुप्त के लिए भी लिखा ।मधुर कंठ के स्वामी महाकवि अच्छे गायक भी थे। उस समय दूर-दूर बसे गाँवों में बहुत कम आबादी होती ।धरनागिरी से कन्या- कुमारी होते हुए रास्ते में मंदिरों में रुकते, काव्य-रचना करते, गाँव वालों को सुनाते, उनका आतिथ्य स्वीकार करते एक शाम वे सिलोन पहुंच गए।
अब उन्हें रात्रि विश्राम की चिंता थी। सामने एक सुंदर भवन में उन्हें एक अकेली अप्रतिम सुंदरी कामिनी मिली जिसे सविनय उन्होंने अपनी समस्या बताई, यह कहते हुए कि वे भारतवर्ष से यात्री हैं और उसके नगर की भव्यता के दर्शन की इच्छा से आए हैं ।कामिनी वृद्ध कालिदास को अपने अति सुसज्जित भवन में ले गई और स्नान-भोजन के बाद उन्हें विश्राम हेतु एक अति आरामदायक कक्ष दिया ।आधी रात के लगभग महाकवि जगे तो उन्हें
कामिनी के कक्ष में तेज रोशनी दिखी। किसी अनहोनी की आशंका से कालिदास ने उसके दरवाजे पर जाकर कौतूहलवश देर रात तक उसके जगने का कारण पूछा ।
कुछ क्षणों की दुविधा के बाद कामिनी ने कालिदास से कहा, “हे अजनबी! आप भारतवर्ष से आए हैं जहाँ के लोग ईमानदार, विश्वसनीय तथा धर्मभीरु होते हैं ।इसलिए मैं निःसंकोच अपनी बात आपको बताऊंगी। मैं और राजकुमार कुमारगुप्त दोनों परस्पर प्रेमबद्ध हैं, परंतु राजकुमार ने एक अधूरा पद्यांश लिखकर मुझे दिया है जो मुझे शादी से पहले पूर्ण करना है ।कई रातों से जगकर भी अभी तक उनकी शर्त पूरी करने में मैं असफल रही हूँ।” कालिदास के पूछने पर राजकुमार का निम्नांकित पद्यांश लिखा कागज़ कामिनी ने कालिदास को दिखाया:-
“कमल के ऊपर कमल खिला हो, देखा क्या ?
सुनी-सुनाई बात मात्र है, ऐसा कभी कहाँ देखा।”
महाकवि ने अपनी लेखनी से उसके नीचे यह जोड़कर कागज़ वापस कामिनी को दे दिया और सो गए:-
” पर प्रियवर मेरे! यह अचरज है संभव ऐसे,
मुखांबुज पर तेरे, दोनों कमल-नयन हैं जैसे ।”
कामिनी अपने कक्ष में पहले तो खुशी से उछल पड़ी,अब शादी हो जाएगी।परन्तु अगले ही क्षण उसके मन में भय उत्पन्न हुआ, ‘मैं इस अजनबी को जानती नहीं, कहीं सुबह राजकुमार को यह भेद पता चल गया तो? सारे किए पर पानी फिर जाएगा ।’फिर सनक ऐसी कि कटार लिए चपला की तेजी से कालिदास के कक्ष में पहुंची और सोते हुए महाकवि का हृदय बेध डाला । चीखते-बिलखते महाकवि के अंतिम शव्द,’विदा ! कुमारगुप्त!! कालिदास का दुर्भाग्य, वह आपसे नहीं मिल पाया’ कामिनी के कानों में पिघले शीशे जैसे पड़े ।उसे विश्वास नहीं हुआ।
महाकवि के दम तोड़ते ही कामिनी ने उनका सामान देखा । मेघदूत ग्रंथ और कुमारगुप्त के लिए उनकी लिखी कविता मिली।उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया और तत्क्षण उसी कटार से उसने आत्महत्या कर ली।
प्रातः राजकुमार कुमारगुप्त कामिनी के भवन पर पहुंचे। उन्हें भी मेघदूत ग्रंथ, उनके और कामिनी के लिए महाकवि की लिखी दोनों रचनाएँ मिल गईं। महाकवि और कामिनी मृत मिले ।उनके साथ ही पूरा सिलोन नगर शोक में डूब गया ।चंदन की चिता सजी।वेद मंत्रों के साथ महाकवि का अंत्यकर्म हुआ । अति शोकाकुल कुमारगुप्त ने जनता की भीड़ से अपने लिए लिखे महाकवि की रचना दिखाते हुए कहा, ” मेरे महान मित्र ने यह मेरे लिए लिखा था। वे मेरे नगर में आकर मृत्यु को प्राप्त हुए। मेरा दुर्भाग्य कि मेरे जीवन काल में हमारी मुलाकात नहीं हो पाई ।अब उनसे मिलने मैं मित्र के पास जाऊंगा।” और उनकी रचना हाथ में लहराते हुए स्वयं भी उसी जलती चिता में कूद पड़े ।
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—-राजेंद्र प्रसाद गुप्ता।