कमर की चाबी…
कमर पर जो बंधी रहती थी, वो चाबी खो गयी,
साझा गृहस्थी घर की, अपनी अपनी हो गयी…
कई ताले कभी, एक चाबी से ही खुल जाते थे,
अब अलग अलग सबकी, अलमारी हो गयी…
सब जानते थे घर मे कि, किसका कहाँ क्या है,
अब लोटा थाली भी, मायका ससुरारी हो गयी….
अपना ताला गैरों को, तका के जाते हैं लोग,
अब घर के लोगों से ही, घर में गद्दारी हो गयी…
कई रंगो का गुलदस्ता, जो कभी दुनिया देखती थी,
अब अलग अपनी-अपनी, घर में क्यारी हो गयी…
©विवेक’वारिद’ *