कमबख़्त इश़्क
जबसे हमने तुम्हें अपना
बना लिया ,
कर खुद को तुम्हारे हवाले दर्द दिल में
बसा लिया ,
बावफ़ा हो ता-‘उम्र हमने
वफ़ा का निबाह किया ,
फ़ितरत से मा’ज़ूर तुमने
हमारा दिल तोड़ दिया ,
जो कुछ हमारा था हमने
तुम पर क़ुर्बां किया ,
हमारी चाहत का तुमने
हमें ये सिला दिया ,
सच कहते हैं, ज़िदगानी में
कुछ ऐसे मरहले आते हैं ,
जब हम ग़ैरों से नहीं,
अपनों से फ़रेब खाते हैं ,
कमबख़्त ‘इश़्क भी
क्या चीज़ है ?
जिसे मानता ये अपने
दिल के क़रीब है ,
दिल हार उसे ,
किसी और का हो नहीं हो सकता ,
फ़ना होकर भी ,
माइल -ब -सुकुँ हो नहीं सकता ।