कभी हम पर भी !
कभी हम पर भी थी चढ़ी आशिकी, खूब जवानी आयी थी।
एक खास मोहिनी सूरत वाली, हमको भी कभी भायी थी।।
नुक्कड़ वाला चाय का टपड़ा, जहाँ अड्डा अपना भारी था,
उसके घर का धोबी और दूधिया, से भी निभाना यारी था।
मगर हाय रे उस वक़्त, नहीं था व्हाट्सएप और ये मैसेंजर,
बस मिलती थी खबर हमें उनकी, लगा के गली का चक्कर।।
कल गलियारे के मुहाने पर ही, मिला जो उसका छोटा भाई,
बतलाया कि पिछले ही महीने तो, दीदी की हुई विदाई थी।
कभी हम पर भी थी चढ़ी आशिकी, खूब जवानी आयी थी,
एक खास मोहिनी सूरत वाली, मुझको भी कभी भायी थी।।
उनको देखने के चक्कर में, घण्टों खुद को टहलाया करते थे,
गाहे बगाहे कर कर के बहाने, हम मन को बहलाया करते थे।
चलते फिरते टाइम क्लॉक टॉवर, बन वक़्त गवाया करते थे,
उनके आने जाने, खाने सोने, तक कि लिस्ट बनाया करते थे।।
मन ही मन कर कर के आराधना, जोगी का सा वेष बना कर,
दिल में प्रेम का सजा के मंदिर, मूरत उसमे उसकी बसायी थी।
कभी हम पर भी थी ये चढ़ी आशिकी, खूब जवानी आयी थी,
वो एक खास मोहिनी सूरत वाली, मुझको भी कभी भायी थी।।
है खुशकिस्मत आज की पीढ़ी, इन्हें देख के मन पछताता मेरा,
अपने काल मे भगवन भिजवाते, मोबाईल तो क्या जाता तेरा।
अब मन में उदासी तन से बैरागी, अंखियन में ये अश्रु धार लिए,
है उसे ढूढ़ती बेचैन निगाहें, की कैसे जीवन का मुझें सार मिले।।
सोचा नाम पता दे इस्तेहार, अख़बार से उसको अभी ढूंढ़वा लूँ,
पर हिम्मत न कर पाया कारण, अब तो मेरी भी एक लुगाई थी।
हाँ कभी हम पर भी थी चढ़ी आशिकी, खूब जवानी आयी थी,
एक खास मोहिनी सूरत वाली, मुझको भी तो बहुत भायी थी।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित १९/०६/२०२०)