कभी सोचता हूं !
कभी सोचता हूं
इस धरा पर आखिर मैं क्यों आया,
जीवन में क्या खोया क्या पाया।
अगणित लोगों की भांति कहीं
मैं भी तो अकारण ही नहीं आया।
कभी सोचता हूं
बिना लक्ष्य के कैसा जीवन है,
बिना पुष्प के कैसा उपवन है।
हर कोई खुद में ही यहां परेशां है,
कहीं ज़मीन तो कहीं आसमां है।
कभी सोचता हूं,
जो मैं नहीं जन्मा होता ,
एक पौधा जो कम पनपा होता।
क्या फर्क पड़ जाता संसार को।
छल कपट से भरे बाज़ार को।
वैसे ही बहुत भीड़ है यहां,
मारामारी थोड़ी कम हो जाती।
शायद कुछ लोगो के ना आने से,
दुनिया और सुकून से सो पाती।
कभी सोचता हूं
प्रकृति का खेल भी निराला है,
विधाता भी लगता मतवाला है।
जन्म से शुरू हुई जो कहानी,
न चाहते हुए भी सबको बितानी।
कभी सोचता हूं
जीवन में इतना संघर्ष क्यूं है,
आखिर यहां इतना दर्द क्यों है।
क्यों आंखों में सबकी नमी है,
सब पाकर भी, ये कैसी कमी है।
कभी सोचता हूं,
ऊपर वाले ने दुनिया क्यूं बनाई।
इस रचना का मकसद क्या है,
क्यूं जीवन मृत्यु का खेल चल रहा,
मोम बन हर कोई क्यों गल रहा।
कभी सोचता हूं
ये कैसा कर्म का बंधन है,
जब फल अपने हाथ ही नहीं।
ये कैसा अजीब सा सफर है,
जब जाता कोई साथ ही नहीं।
कभी सोचता हूं
काल चक्र क्यों अनवरत चल रहा,
सपनों को हमारे क्यों ये छ्ल रहा।
समय आने पर सब खो जायेगा,
जीवन ये मृत्य बन सो जायेगा।