कभी ब्रह्म, कभी ब्रह्मास्मि
हथेली पे
दरकती
लकीरों से,
प्रारब्ध के
तंतुओं को,
जोड़ने की
कोशिशें मेरी,
कभी ब्रह्म
कभी
अहं ब्रह्मास्मि,
झीने से
परदर्शी जाले में
उलझती
आस्था मेरी।
**
युगों से,
पार न पा सका
मैं अपना,
युगों से
कभी ईश्वर,
कभी मानव
कभी स्त्री
कभी पुरुष
कभी भोग
कभी संभोग
कभी काया
कभी माया
कभी अहं
कभी भय
कभी जय
कभी विजय
कभी प्रेम
कभी घृणा
अनगिनत
विरोधाभासी
प्रवृतियां मेरी।
**
पता नहीं
मैं कौन हूँ
क्या मेरे
दृष्टिकोण हैं,
क्या मेरा
दर्शन है
क्या मेरा विज्ञान,
लेकिन तय है
हज़ार उलझनों के
बीच भी,
मैंने
रास्ते तय
कर डाले
चाँद के,
खगोल के,
अपनी
कोशिकाओं के,
गुणसूत्र के,
गुणसूत्र तले,
आनुवंशिक इकाई के।
**
हजार प्रश्न
अपनी जगह,
अन्वेषण मेरे
अपनी जगह,
ब्रह्म और
ब्रह्मास्मि के मध्य,
अविराम
मेरी उँगलियों पर,
क्षणभंगुर ये,
परखनलियाँ;
बस,
एक और खोज
पहले कर लूँ,
अमतरत्व पा लूँ,
इसी सदी में;
प्राप्ति अमरत्व की,
मुझे ब्रह्म से दूर,
अहं ब्रह्मास्मि में
पूर्णतः
विलीन कर लेगी,
और मैं ही,
अगले प्रलय का,
कारक बनूंगा,
कारण बनूंगा,
अहं ब्रह्मास्मि!
-✍श्रीधर.