कभी पत्थर भी पिघले
पिघले पूरे हैं नहीं, अभी शेष पाषाण ।
बैठे इस विश्वास में, तड़प उठें कब प्राण ।।
तड़प उठें कब प्राण, असर हो जाए शायद ।
फलीभूत मन तान, सफल हो जाय क़वायद ।।
कह दीपक कविराय, वेदना अब बह निकले ।
जगे मिलन की चाह, कभी पत्थर भी पिघले ।।
दीपक चौबे ‘अंजान’