कभी कोई कभी कोई
जलाता है बुझाता है कभी कोई कभी कोई।
मेरी हस्ती मिटाता है कभी कोई कभी कोई।।1
बुरा चाहा नहीं मैनें जहाँ में तो किसी का भी।
मुझे क्यूं आजमाता है कभी कोई कभी कोई।।2
नहीं भाता मुझे सँग झूठ का देना मगर मुझसे।
हकीकत को छुपाता है कभी कोई कभी कोई।।3
मेरा अपना नहीं कोई शहर सारा बे’गाना है।
मगर अपना बताता है कभी कोई कभी कोई।।4
सभी यह जानते हैं हूँ यहाँ निर्दोष मैं लेकिन।
सजा मुझको दिलाता है कभी कोई कभी कोई।।5
हजारों ख्वाब आंखों को दिखाकर एक ही पल में।
उन्हे फिर तोड़ जाता है कभी कोई कभी कोई।।6
नियम अच्छा नहीं लगता सियासत का यही मुझको।
यहाँ सच को दबाता है कभी कोई कभी कोई।।7
यही दस्तूर भारत का हमेशा से रहा यारो।
वतन पर जां लुटाता है कभी कोई कभी कोई।।8
बढे़ं जब पाप धरती पर चलें बस जुल्म की आंधी।
यहाँ अवतार आता है कभी कोई कभी कोई।।9
विवेकानंद स्वामी बन कभी बन बुद्ध के जैसा।
कि मानवता बचाता है कभी कोई कभी कोई।।10
प्रदीप कुमार “प्रदीप”