कभी करुणा कभी निर्भया
कभी करुणा,कभी निर्भया,
कभी सोनाली कभी दामिनी बन,
हर बार आती हो,
एक नया रूप धारण कर,
दिखाने आइना,
हमारी विकृत सोच का,
इंसान से हैवान तक का,
सफ़र तय करने में,
भूल जाते इंसानियत का हर अंश,
अब प्रेम कहाँ आराधना,
अभिशाप की शक्ल है,
चुकानी होगी कीमत तुम्हें ,
अपने इंकार की,
हम कैसे सहेंगे तुम इंकार कर दो,
हमारे प्रेम प्रस्ताव को,
फिर चाहे वह प्रेम प्रेम न होकर,
वासना में रची बसी ,
तुम्हारी देह की भूख ही क्यों न हो,
तुम्हारी हिम्मत कैसे जो स्त्री होकर,
भोग्या बनने से इंकार कर सको,
निकाल न दीं जाएंगी तुम्हारी अंतड़ियां,
लोहे की रॉड घुसेड़कर तुम्हारे शरीर में,
या तेज़ाब डालकर झुलसा दी जायेगी,
तुम्हारी देह और आत्मा दौनों,
या चाकुओं से गोद तुम्हें लहूलुहान कर,
पहुंचा दिया जायेगा इस दुनिया से दूर ही,
कुछ दिन तुम्हें याद करेंगे मोमबत्ती जलाकर,
फिर से तैयार होगी कोई करुणा या निर्भया।