कभी-कभी
कभी-कभी
तुम्हारा चेहरा भी
पढ़ लेता हूं
मन को ऐसा लगा
कि आसमान
छू लेता हूं
एक पल ही सही
मैं भी तो पहाड़
हो लेता हूं
मन में जमा मैल
बर्फ सा पिघल लेता हूं
पानी की बाढ़ का
हिस्सा हो लेता हूं
साथ -साथ बहकर
नदी के रास्ते
समंदर को मिल लेता हूं
आने जाने की कहानी
अच्छे से सुन लेता हूं
और जीवन को
धरती पर ही
जन्नत समझ लेता हूं
विरह वेदना भूलकर
आनंदित हो लेता हूं
***
-रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’