”कभी कभी सोचता हूं”
कविता -10
कभी-कभी सोचता हूं लौट जाऊं उसकी गली में फिर से,
फिर सोचता हूं उसकी मंजिल कोई और हो तो,
फिर खुद-ब-खुद वहीं पर ठहरा रहता हूं।
कभी-कभी सोचता हूं, यह ख्वाब अधूरा क्यों ,
फिर सोचता हूं कभी देखा था क्या ,
और फिर इसी कशमकश में रात गुजर जाती है।
कभी-कभी सोचता हूं दिन भर खुद को समेटता हूं,
फिर सोचता हूं रात को उसकी यादों में क्यों बिखर जाता हूं,
और फिर खुद को ही संभालता हूं।
कभी-कभी सोचता हूं, कब तक तुम्हारी यादों के सहारे रहूं,
फिर सोचता हूं तलाश करूं तो कोई मिल ही जाएगी,
फिर खुद को उसी हाल में छोड़ देता हूं।
कभी-कभी सोचता हूं तोड़ देता हूं यह रस्में रिवाज,
फिर सोचता हूं कहीं यह ना हो जाए, कहीं वह ना हो जाए,
और फिर खुद ही अपने इरादे बांधता हूं।
कभी-कभी सोचता हूं, वो मेरे आस-पास है।
फिर सोचता हूं, यह मेरा वहम है।
फिर अपना ख्याल खुद ही बदलता हूं।
कभी-कभी सोचता हूं कोई कुछ दूर तक मेरे साथ चला था क्या,
फिर सोचता हूं हाथ तो खाली है
और फिर खुद ही अपने साथ चलता हूं।
कभी-कभी सोचता हूं जिंदगी में यह गम का धुआं क्यों
फिर सोचता हूं कहीं कोई आग तो नहीं
और फिर खुद ही खुशियों को हवा देता हूं।