कभी-कभी खामोशी की,
कभी-कभी खामोशी की,
चादर ओढ़ लेता हूं ।
उसे अपना हमसफर बना,
अपने अंतर्द्वंद को मिटा लेता हूं।
ऐसा नहीं खामोशी मेरी पसंद है,
परंतु किसी की भावनाओं,
को ठेस न पहुंचे ,
दुखी ना हो मुझसे कोई ।
इसलिए कभी-कभी अपने दर्द को,
भावनाओं की मुस्कुराहट में छुपा लेता हूं।
क्या शिकवे -शिकायत करू
क्या पांचों उंगली एक सी होती है,
फिर क्यों तेरी चाहत पर,
इतने सवाल करू ।
इसलिए कभी कभी खुद रोकर,
खुद ढाढस बंधा लेता हूं ।
हां , अपनी सवाल का,
कभी खुद जवाब बना लेता हूं ।
कभी-कभी खामोशी को…..
कभी कुछ कहना भी चाहू तो,
मेरे अंतर्मन रोक लेते हैं।
हां ऐसा नहीं ,मैं हर वक्त,
सही ही रहूं ,यह सोच
कभी कभी अपने लबों को,
खामोशी में कैद कर लेता हूं ।
थोड़ी अपने को तलाशने में ,
मैं मनहूस -सा हो जाता हूं
अनिल “आदर्श”