कभी गौर से देखा नहीं
कभी गौर से देखा नहीं
उन सड़कों पे वापस लौटकर
जहां से रोज गुजरते थे
घरौंदे से तालीम को लेने
और तालीम को बोझा में भर
जब वापिस लौटते
तो कभी – कभार अकेले हुआ करते थे
तब आंखे खोलकर चलते हुए ख्वाबों को देखना
और एक अलग सी बेचैनी को अपने अंदर ठहरा देना
ये खुशनसीबी एहसास होता था
जब घर तक ऐसे ही ख्यालों में डूबते जाते थे
तब रास्तों पर गम दीदार कम हुआ करते थे
और कभी कभी थोड़ी मुस्कान को छुपाने में
थोड़ी और मुस्कान को भर लेना
ये अपनी ही दुनिया का असर होता था
जब उन रास्तों पर
जहा से रोज निकलते थे
उन सड़कों का
मिजाज़ याद आता है
जो जगह जगह एक गंध को लिए होता है
जिन पे चलने का मेरा ढंग
मेरे अकेलेपन को कब छु गया
कभी गौर से देखा नहीं ।