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26 Jul 2021 · 1 min read

कब सोचा था….

सोचा था तुझसे ब्याह करूँगी
प्यार तुझे बेपनाह करूँगी

साँझ ढले जब घर आएगा
निहारा तेरी राह करूँगी

तेरी लंबी उमर की खातिर
उपवास इक हर माह करूँगी

पूरा न जिसको कर पाये तू
कोई न ऐसी चाह करूँगी

रहूँगी तले पलकों के तेरी
कभी न ऊँची निगाह करूँगी

कुछ भी नया करने से पहले
आकर तुझे आगाह करूँगी

मरते दम तक साथ तेरे ही
जीवन अपना निबाह करूँगी

तुझसे जुदा होकर जीने का
सोचा कब था गुनाह करूँगी

कब सोचा था याद में तेरी
रातें अपनी स्याह करूँगी

साथ तेरे जो बुने चाव से
उन सपनों का दाह करूँगी

खुश रहूँगी ‘सीमा’ में अपनी
नहीं खुद को गुमराह करूँगी

– © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“शब्द स्पंदन” से

3 Likes · 2 Comments · 456 Views
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