**कब से बंद पड़ी है गली दुकान की**
**कब से बंद पड़ी है गली दुकान की**
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कब से बंद पड़ी है गली दुकान की,
भुगती आज सजा है खुली जुबान की।
कोई साथ खड़ा,हैँ कहीं नहीं दिखा,
देखी है आन सदा कीमती बयान की।
वो तो झूठ सदा थे बोलते रहे यहाँ,
दुनिया जान गई है कड़ी विधान की।
मिलता खूब रहा खोट रोज आम सा,
झूटी काम न आई कली बखान की।
छिपता चाँद बुरा है लगे विराग का,
मिटती कब रीझ है भला विहान की।
मानसीरत न रुका है कभी मुकाम पर,
गिरती नींव रुकी ही नहीं मकान की।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)