कब तलक यूँही
ये रोज की जद्दोजहद खुद से है,
खुद की है!!
कोई और नहीं शामिल इसमें,
तय ये करना है
कि जंग में
उतरोगे या
फिर तमाशबीन ही बने रहना है?
फिर देखते रहो औरों को,
लानत, फिकरे
और ईर्ष्या के निवालों
को उगलते, निगलते!!
कभी तो खुद भी उतरो
मैदान में
करतब के लिए,
कब तलक यूँही साहिल पर
अटके रहोगे,
निष्पंद, निश्चेष्ट,
सिर्फ लहरों की गूंज,
और पांव के नीचे से
शनै- शनै
रेत का निकल जाना,
थके, बोझिल कदमों से लौट आना,
लुटे, पिटे
ये सिलसिला जारी है सदियों से,
और जारी रहेगा,
नए पुराने अंदाज में,
बस एक बोझ,
तमाशबीन होने का
चिपका पड़ा है,
नासूर की तरह,
खुद के कहकहों और शोर के बीच.……
हरपल कचोटता, एक दर्द
किनारों पर ही सिमटने
की चाहत के
एवज में मिला!!!